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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[एकविंशाध्ययनम्
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का कल्याण निहित है । समुद्रपाल ऋषि ने इसी मार्ग का अनुसरण किया, इसी प्रकार की निरवद्य प्रवृत्ति का आचरण किया और इसी के प्रभाव से वह सर्वोत्कृष्ट निर्वाण पद को प्राप्त हुए।
____ इस प्रकार संयमवृत्ति का आराधन करते हुए समुद्रपाल मुनि किस पद को प्राप्त हुए, अब इस विषय में कहते हैं
स णाणनाणोवगए महेसी, ___ अणुत्तरं चरित्रं धम्मसंचयं । अणुत्तरे नाणधरे जसंसी,
ओभासई सूरि एवंऽतलिक्खे ॥२३॥ स ज्ञानज्ञानोपगतो महर्षिः, ___ अनुत्तरं चरित्वा धर्मसञ्चयम् । अनुत्तरो ज्ञानधरो यशखी,
स पशखा, ___ अवभासते सूर्य इवान्तरिक्षे ॥२३॥
पदार्थान्वयः-स-वह समुद्रपाल महेसी-महर्षि एणाण-श्रुतज्ञान से नाणोवगए-पदार्थों के जानने से उपगत होकर अणुत्तरं-प्रधान धम्मसंचय-क्षमादि धर्मों का संचय चरिउं-आचरण करके अणुत्तरे-प्रधान नागधरे-केवल ज्ञान के धरने वाला जसंसी-यशस्वी—यश वाला सूरि एव-सूर्यवत् ओभासई-प्रकाशमान है अंतलिक्खे-अन्तरिक्ष-आकाश में।
मूलार्थ-समुद्रपाल ऋषि श्रुतज्ञान के द्वारा पदार्थों के स्वरूप को जानकर और प्रधान-क्षमादि-धर्मों का संचय करके, केवल ज्ञान से उपयुक्त होकर अन्तरिक्ष में-आकाशमंडल में प्रकाशित होने वाले सूर्य की भाति अपने केवलज्ञान द्वारा प्रकाश करने लगा।
टीका-प्रस्तुत गाथा में समुद्रपाल ऋषि की ज्ञानसम्पत्ति का दिग्दर्शन कराया गया है। वह समुद्रपाल ऋषि, प्रथम श्रुतज्ञान के द्वारा संसार के हर एक