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एकविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[ ६४७ अब फिर इसी विषय में कहते हैंविवित्तलयणाई भइन्ज ताई,
निरोवलेवाइं असंथडाई। इसीहिं चिण्णाई महायसेहि,
कायेण फासिज परीसहाई ॥२२॥ विविक्तलयनानि भजेत त्रायी,
निरुपलेपान्यसंस्कृतानि । ऋषिभिश्चीर्णानि महायशोभिः, . .
कायेन स्पृशति परिषहान् ॥२२॥ पदार्थान्वयः-विवित्त-विविक्त-स्त्री आदि से रहित लयणाई-वसती ताई-षटकाय का रक्षक भइज-सेवन करता है निरोवलेवाइं-लेप से रहित असंथडाईबीजादि से रहित इसीहिं-ऋषियों द्वारा चिएणाई-आचरण की हुई महायसेहिमहायश वाले कायेण-काया से फासिज-स्पर्श करता हुआ परीसहाई-परीषहों को।
मूलार्थ—षद्काय का रक्षक साधु महायशस्वी ऋषियों द्वारा स्वीकृत, लेपादि संस्कार और बीजादि से रहित ऐसी विविक्त वसती-उपाश्रय आदि का सेवन करता हुआ वहाँ पर उपस्थित होने वाले परिषहों को काया-शरीर द्वारा सहन करे।
टीका-इस गाथा में भी मुनिधर्मोचित विषय का ही वर्णन किया है। साधु किस प्रकार के स्थान में निवास करे ? इस विषय में शास्त्रकार का कथन है कि साधु उस स्थान-उपाश्रय में रहे जहाँ पर स्त्री, पशु और षंढ आदि का निवास न हो तथा जो स्थान लेपादि से रहित हो एवं बीजादि से युक्त न हो और महायशस्वी ऋषियों ने जिसका विधान किया हो, ऐसे स्थान में रहकर साधु परिषहों को शरीर द्वारा सहन करने का प्रयत्न करे । तात्पर्य यह है कि शुद्ध वसती और परिषहों को सहन करता हुआ साधु ऋषिभाषित मार्ग का ही अनुसरण करे, इसी में उसके आत्मा