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________________ ६४६ ] 鲛 उत्तराध्ययन सूत्रम् - [ एकविंशाध्ययनम् अरतिरतिसहः प्रहीणसंस्तवः, विरत आत्महितः प्रधानवान् । तिष्ठति, परमार्थपदेषु छिन्नशोकोऽममोऽकिञ्चनः ॥२१॥ पदार्थान्वयः– अरइ–अरति रह-रति सहे - सहन करता है पहीणसंथवेत्याग दिया है संस्तव को जिसने विरए - रागादि से रहित आयहिए - आत्महितैषी पहाणवं- प्रधानवान् परमट्ठपएहिं - परमार्थ पदों में चिट्ठई - स्थित है छिन्नसोए - छेदन कर दिया है शोक को जिसने अममे - ममतारहित अकिंचणे - अकिंचन । मूलार्थ - समुद्रपालमुनि अरति - चिन्ता और रति को सहन करता है, उसने गृहस्थों का संस्तव छोड़ दिया है, रागादि से निवृत्त हो गया, आत्मा के हितकारी प्रधान पद वा परमार्थ पदों में स्थित है, उसने शोक को वा कर्मस्रोत को छिन्न-भिन्न करके निर्ममत्व और अकिंचनता को धारण किया है। टीका - समुद्रपाल मुनि विषयों के मिलने से प्रसन्नता और न मिलने पर अरतिभाव अथवा असंयमभाव में रति और संयमभाव अरति इस प्रकार के भावों को छोड़कर जिसने गृहस्थों का पूर्व संस्तव वा पश्चात् संस्तव तथा गृहस्थों के साथ सहवास और प्रीति उत्पन्न करना, इस बात को भी छोड़ दिया है। इतना ही नहीं किन्तु विरत होकर आत्मा के हितकारी प्रधान योगों वाला होकर, जो परमार्थ पद हैं अर्थात् जिन पदों से मोक्ष की प्राप्ति होती है, उन्हीं पदों में ठहरता है, साथ ही वस्तु के वियोग से शोक का कर्म आने के जो मिथ्यात्वादि श्रोत हैं, उनको भी छेदन कर दिया है । अतः निर्मम — ममतारहित और अकिंचन होकर विचरने लगा । कारण यह है कि ज्ञानपूर्वक की हुई उक्त क्रियाएँ ही मोक्ष की साधक हैं। तथा 'पएहि — पदेषु' इसमें 'सुप्' व्यत्यय है । इसलिए वर्तमान समय के मुनियों को भी उक्त क्रियाओं का सदैव अनुसरण करना चाहिए, जिससे कि परमार्थ पद की शीघ्र प्राप्ति हो । इस प्रकरण में पुनरुक्तिदोष की भी आशंका न करनी चाहिए क्योंकि यह उपदेश का अधिकार चल रहा है। उपदेश में एक वस्तु का वार २ वर्णन करना बोध की स्थिरता के लिए होता है। अतः यह भूषण है, दूषण नहीं ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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