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हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
अनुन्नतो नावनतो महर्षिः, न चापि पूजां गां च संयतः ।
स ऋजुभावं प्रतिपद्य संयतः, निर्वाणमार्ग विरत उपैति ॥२०॥
एकविंशाध्ययनम् ]
पदार्थान्वयः – अणुन्नए— अनुन्नत नावणए-न अवनत महेसी - महर्षि न यात्रि-नहीं पूय-पूजा च - और गरिहं गर्हा संजए - संग न करता हुआ से - वह उज्जुभावं - ऋजुभाव को पडिवज - ग्रहण करके संजए - साधु निव्वाणमग्गं - निर्वाण मार्ग को विरए-विरत होकर उड़ - प्राप्त करता है ।
मूलार्थ - जिसका पूजा में उन्नत भाव नहीं, निन्दा में अवनत भाव नहीं, किन्तु केवल ऋजुभाव को ग्रहण करता है, वह साधु विरत होकर मोक्षमार्ग को ही प्राप्त करता है ।
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टीका - प्रस्तुत गाथा भी फलपूर्वक साधु के कर्तव्य का ही निर्देश करती है। साधु क पूजा से प्रसन्न नहीं होता और निन्दा से जिसके मन में द्वेष अथवा उदासीनता नहीं होती अर्थात् दोनों में समान भाव रखता है, ऐसा साधु बिरति को धारण करता हुआ निर्वाण को ही प्राप्त करता है । तात्पर्य यह है कि जो साधु किसी प्रकार के सत्कार की अभिलाषा नहीं रखता और किसी की निन्दा से . जिसको उद्वेग नहीं होता तथा विषयभोगों से सर्वथा रहित होकर केवल ऋजु मार्गसरल मार्ग — शांतिमार्ग का अनुसरण कर रहा है, वह अन्त में सर्वश्रेष्ठ निर्वाणपद — मोक्षपद को ही प्राप्त करता है । सारांश यह है कि समुद्रपाल मुनि इसी वृत्ति का अनुसरण करने वाला था, जिसका अन्तिम फल मोक्ष की प्राप्ति है ।
फिर कहते हैं
अरइरइसहे पहीणसंथवे, विरए आयहिए पहाणवं ।
परमट्टपएहिं चिट्ठई,
छिन्नसोए अममे अकिंचणे ॥२१॥