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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[एकविंशाध्ययनम्
मेरुरिव वातेनाकम्पमानः,
परीषहान् गुप्तात्मा सहेत ॥१९॥ पदार्थान्वयः-पहाय-छोड़कर राग-राग को च-और तहेब-उसी प्रकार दोसं-द्वेष को च-और मोह-मोह को भिक्खू-साधु सययं-निरन्तर वियक्खणेविचक्षण मेरु मेरु व्व-की तरह वाएण-वायु से अकम्पमाणो-अकम्पायमान होता हुआ परीसहे-परिषहों को आयगुत्ते-आत्मगुप्त होकर सहिजा-सहन करे।
___ मूलार्थ-विचषण भिक्षु सदा ही राग, द्वेष और मोह का परित्याग करके, वायु के वेग से कम्पायमान न होने वाले मेरु पर्वत की तरह आत्मगुप्त होकर परिषहों को सहन करे।
टीका-प्रस्तुत काव्य में वर्तमान काल के मुनियों को समुद्रपाल मुनि का अनुकरण करने का उपदेश देते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि जो विचक्षण अर्थात् विचारशील मुनि हैं वे राग, द्वेष और मोह को त्यागकर परिषहों को सहन करने में सदा सुमेरु पर्वत की भाँति निश्चल रहें । अर्थात् जिस प्रकार वायु के प्रचंड वेग से भी सुमेरु पर्वत कम्पायमान नहीं होता, तद्वत् परिषहों-कष्टों के उपस्थित होने पर भी सदा दृढचित्त रहें, अपनी संयमनिष्ठा से कभी विचलित न हों। तथा आत्मगुप्त विशेषण इसलिए दिया है कि जिस प्रकार कूर्म अपने अंगों को संकोच में लाकर बाहर के आघात से अपने आपको बचा लेता है, उसी प्रकार बुद्धिमान् भिक्षु भी अपने अंगोपांग को वश में रखकर अपने संयम धन को बाहर के आघात से बचाने का प्रयत्न करे । यहाँ पर मेरु की उपमा अतिदृढताख्यापन के लिए दी गई है।
अब फिर इसी विषय में कहते हैंअणुन्नए नावणए महेसी,
न यावि पूयं गरिहं च संजए। से उज्जुभावं पडिवज संजए,
निव्वाणमग्गं विरए उवेइ ॥२०॥