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एकविंशाध्ययनम् ] . हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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शरीर को फुसन्ति-स्पर्श करते हैं अकुक्कुओ-तो भी कुत्सित शब्द न करता हुआ तत्थ-वहाँ पर अहियासएजा-सहन करता है रयाई-कर्मरज पुराकडाई-पूर्वकृत को खेवेजा-क्षय करके।
मूलार्थ-समुद्रपाल मुनि शीत, उष्ण, दंश, मशक, तृणादि स्पर्श तथा नाना प्रकार के भयंकर रोग, जो देह को स्पर्श करते हैं, उनको सहन करता हुआ और पूर्वकत कर्मरज को तय करता हुआ विचरता था।
टीका-प्रस्तुत गाथा में भी समुद्रपाल मुनि की दृढता का ही वर्णन है। उसके शरीर को डांस, मच्छर आदि ने काटा; शीत, उष्ण तथा तृणादि के कठोर स्पर्श से और नाना प्रकार के आतंकों से उसके शरीर को कल्पनातीत आघात पहुंचे परन्तु उसने इन सब प्रकार के परिषहों-उपद्रवों को बड़ी दृढता से सहन किया अर्थात् इनके उपस्थित होने पर भी वह अपनी संयमनिष्ठा से तनिक भी विचलित नहीं हुआ। इसी कारण से वह पूर्वकृत–पूर्वजन्मार्जित कर्मरज का क्षय करता हुआ निराकुल होकर विचरने लगा। यद्यपि सूत्र में जो क्रिया दी है, वह विध्यर्थक लिङ् लकार की है तथापि प्रकरण समुद्रपाल मुनि का ही है। तथा 'व्यत्ययश्च' इस प्राकृत नियम की यहाँ पर भी प्रधानता है, अतः ये आर्षवाक्य हैं । अथवा अन्य मुनिगण भी इससे शिक्षा ग्रहण करें; एतदर्थ इनका प्रयोग किया गया है । एवम्आर्षत्वात् कुत्सितं कूजति–पीडितः सन्नाक्रन्दति कुकूजः, न तथा इति अकुकूजः । तथा— 'अकक्करत्ति' एवमपि पाठो दृश्यते। कदाचिद्वेदनाऽऽकुलितो न कर्करायितकारीइति । अर्थात् वेदना को शांतिपूर्वक सहन करना।
फिर कहते हैंपहाय रागं च तहेव दोस,
मोहंच भिक्खूसययं वियक्खणे । मेरु व्ववाएण अकम्पमाणो,
परीसहे आयगुत्ते सहिज्जा ॥१९॥ प्रहाय रागं च तथैव द्वेषं,
मोहं च भिक्षुः सततं विचक्षणः ।