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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[एकविंशाध्ययनम्
टीका-प्रस्तुत गाथा में समुद्रपाल मुनि की संयमदृढता का परिचय देते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि संसार में ऐसे बहुत से कायर पुरुष विद्यमान हैं जो कि कष्टों के समय पर अपनी आत्म स्थिति को सर्वथा भूलकर प्राकृत जनों की तरह आर्तध्यान करने लग जाते हैं, परन्तु समुद्रपाल मुनि उन कायरों में से नहीं थे। वे तोरण-संग्राम में निर्भयता से भिड़ने वाले नागराज-गजेन्द्र की तरह, परिषहों के साथ शांतिमय युद्ध करते हुए उनसे अणुमात्र भी नहीं घबराये और उन्होंने अपने आत्मबल से उन पर पूर्णरूप से विजय प्राप्त की । सारांश यह है कि जिन परिषहों के उपस्थित होने पर भय के मारे बहुत से कातर पुरुष अपने संयम को छोड़कर भाग जाते हैंसंयमक्रिया से पतित हो जाते हैं, उन्हीं परिषह रूप भयंकर शत्रुओं के समक्ष, संयम-संग्राम में वह समुद्रपाल मुनि बड़ी दृढता के साथ आगे बढ़ते और प्रसन्नतापूर्वक उनसे युद्ध करते हुए उन पर विजय प्राप्त करते थे। तात्पर्य यह है कि उन्होंने विकट से विकट परिषह को अपनी सहनशीलता से विफल कर दिया। इसी प्रकार वर्तमान समय के प्रत्येक मुनि का कर्तव्य है कि वह अपनी संयमविषयिणी दृढता को स्थिर रखने के लिए, समुद्रपाल मुनि की तरह अपने आत्मा को अधिक से अधिक बलवान् बनाने का प्रयत्न करे।
अब इसी विषय की व्याख्या करते हुए फिर कहते हैंसीओसिणा दंसमसगा य फासा,
आयंका विविहा फुसन्ति देहं । अकुक्कुओ तत्थऽहियासएज्जा,
रयाई खेवेज पुराकडाई ॥१८॥ शीतोष्णा दंशमशकाश्च स्पर्शाः,
आतंका विविधाश्च स्पृशन्ति देहम् । अकुत्कुचस्तत्राधिसहेत .
रजांसि क्षपयेत् पुराकृतानि ॥१८॥
पदार्थान्वयः-सीओसिणा-शीतोष्ण दस-दंश मसगा-मशक य-और फासा-तृणादिक स्पर्श आयंका-आतंक–घातक रोग विविहा-नाना प्रकार के देहं