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एकविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम्।
[६४१ औदयिक आदि भावों के कारण लोगों के उदय में आ रहे हैं। इसी हेतु से बहुत से अभिप्राय, अज्ञाततत्त्व मुनियों पर भी आक्रमण कर लेते हैं । अतः विचारशील मुनि उनको भली भाँति जानकर अपनी संयमवृत्ति में ही दृढतापूर्वक निमग्न रहे किन्तु लोगों के अभिप्राय का अनुगामी न बने तथा मुनिवृत्ति-चारित्र ग्रहण करने के अनन्तर देव, मनुष्य और तिर्यंचसम्बन्धी, भयोत्पादक नानाविध कष्टों के उपस्थित होने पर भी अपने व्रत से विचलित न हो किन्तु दृढतापूर्वक उन आये हुए कष्टों का स्वागत करे—उनको धैर्यपूर्वक सहन करे। प्रस्तुत गाथा में सुप्व्यत्यय, 'अपि' का अध्याहार और 'म' की अलाक्षणिकता; यह सब प्राकृत के नियम से जान लेना।
अब फिर कहते हैंपरीसहा दुव्विसहा अणेगे,
सीयन्ति जत्था बहुकायरा नरा। से तत्थ पत्तेन वहिज्ज पंडिए, ___ संगामसीसे इव नागराया ॥१७॥ परीषहा दुर्विषहा अनेके,
सीदन्ति यत्र बहुकातरा नराः। . स तत्र प्राप्तो नाव्यथत पण्डितः,
___ संग्रामशीर्ष इव नागराजः ॥१७॥
पदार्थान्वयः-परीसहा-परिषह दुब्बिसहा-जो सहने में दुष्कर हैं अणेगेअनेक प्रकार के जत्था-जिनमें बहुकायरा-बहुत से कातर नरा-पुरुष सीयन्ति-ग्लानि को प्राप्त हो जाते हैं से-वह तत्थ-वहाँ पर पत्ते-प्राप्त हुआ न वहिज-व्यथित नहीं होते पंडिए-पंडित संगामसीसे-संग्राम के सिर पर इव-जैसे नागराया-नागराज-गजेन्द्र।
मूलार्थ-अनेक प्रकार के दुर्जय परिषहों के उपस्थित हो जाने पर बहुत से कायर पुरुष शिथिल हो जाते हैं परन्तु वह समुद्रपाल मुनि, संग्राम में गजेन्द्र की तरह उन घोर परिषहों के उपस्थित होने पर भी व्यथित नहीं हुआ? अर्थात् उनसे घबराया नहीं।