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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ एकविंशाध्ययनम्
समूलघात हो जाता है । इसी लिए इच्छा के निरोध को शास्त्रकारों ने मुख्य तप कहा है, जो कि प्रदीप्त हुई अग्निज्वाला के समान कर्मेन्धन को जलाने की अपने में पूर्ण शक्ति रखता है। अतः इच्छा का निरोध करके संयमशील भिक्षु सदा उपेक्षाभाव से ही संसार में विचरण करे, यही प्रस्तुत गाथा का भाव है।
क्या भिक्षु को भी अन्यथाभाव संभव हो सकता है ? जिससे उक्त प्रकार से मुनिचर्या का वर्णन किया गया, अब इसी के विषय में कहते हैं
अणेगछन्दामिह माणवेहि,
जे भावओ संपगरेइ भिक्खू । भयभेरवा तत्थ उइन्ति भीमा,
दिव्वा माणुस्सा अदुवा तिरिच्छा ॥१६॥ अनेकछन्दांसीह मानवेषु,
यान् भावतः संप्रकरोति भिक्षुः। भयभैरवास्तत्रोद्यन्ति भीमाः,
दिव्या मानुष्या अथवा तैरश्चाः ॥१६॥ पदार्थान्वयः-अणेगछन्दाम-अनेक प्रकार के अभिप्राय इह-इस लोक में माणवेहि-मनुष्यों के सम्भव हैं जे-जिनको भावओ-भाव से संपगरेइ-प्रहण करता है भिक्खू–साधु भयभेरवा-भय के उत्पन्न करने वाले अति भयंकर तत्थ-वहाँ पर उइन्ति-उदय होते हैं भीमा-अतिरौद्र दिव्या-देवों सम्बन्धी माणुस्सा-मनुष्यों सम्बन्धी अदुवा-अथवा तिरिच्छा-तिर्यक्सम्बन्धी कष्ट। ...
मूलार्थ-इस लोक में मनुष्यों के अनेक प्रकार के अभिप्राय हैं । साधु उन सब को भाव से जानकर-उन पर सम्यक् रीति से विचार करे। तथा उदय में आये हुए भय के उत्पन्न करने वाले अतिरौद्र, देव, मनुष्य और तिर्यचसम्बन्धी कष्टों को शांतिपूर्वक सहन करे।
टीका-इस संसार में जीवों के अनेक प्रकार के अभिप्राय है, जो कि