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हिन्दी भाषाटीकासहितम् ।
उपेक्षमाणस्तु परिव्रजेत्, प्रियमप्रियं सर्व तितिक्षेत् । न सर्व सर्वत्राभिरोचयेत्,
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न चापि पूजां गर्हां च संयतः ॥१५॥
पदार्थान्वयः — उवेहमाणो - उपेक्षा करता हुआ परिव्वजा - संयममार्ग में विचरे पियमप्पियं-प्रिय और अप्रिय सब्ब - सर्व तितिक्खएजा - सहन करे न - नहीं सव्व - सर्व सव्वत्थ - सब पदार्थों में अभिरोयएज्जा - अभिरुचि करे च - और न यावि-न पूयं - पूजा च - और गरहं गर्हा की संजए - संयत — साधु रुचि करे ।
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एकविंशाध्ययनम् ]
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मूलार्थ – संयत साधु उपेक्षा करता हुआ संयममार्ग में विचरे, प्रिय और अप्रिय सब को सहन करे तथा सर्वपदार्थ वा सर्वस्थानों में अभिरुचि न करे और पूजा एवं गर्दा को न चाहे ।
टीका - इस गाथा में भी मुनिवृत्ति का ही उल्लेख किया गया है। संयम मार्ग में विचरता हुआ मुनि सर्वत्र उपेक्षा भाव से ही रहे, यही उसके संयम मार्ग
शुद्ध है । तात्पर्य यह है कि किसी स्थान पर यदि उसके साथ किसी ने असभ्य बर्ताव भी किया हो— किसी ने उसके प्रति कठोर वचन कहें हों तो संयमशील मुनि को उसकी उपेक्षा ही कर देनी चाहिए। उसके वचन का उत्तर देना अथवा उसके प्रति क्रोध करना इत्यादि मुनिधर्म के विरुद्ध कोई भी आचरण न करे किन्तु मुझको किसी ने कुछ भी नहीं कहा, ऐसा विचार कर उस ओर ध्यान भी न करे 1 अतएव प्रिय और अप्रिय दोनों वस्तुओं के संयोग में भी सदा मध्यस्थ भाव से ही रहे किन्तु संसार के किसी पदार्थ में आसक्त न होवे । इसी प्रकार अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिषह के उपस्थित होने पर मन में किसी प्रकार की विकृति न लावे किन्तु धैर्य और शांतिपूर्वक सहन करने में ही अपने आत्मा की स्थिरता का परिचय देवे । अतएव अपने पूजा, सत्कार अथवा निन्दा की ओर भी ध्यान न देवे। ये सब जीवन्मुक्त अथवा मोक्षविषयक तीव्र अभिलाषा रखने वाले आत्माओं के लक्षण हैं, जिनका आचरण नवदीक्षित मुनि समुद्रपाल कर रहे थे। वास्तव में बढ़ी हुई इच्छा ही सर्व प्रकार के दुःखों की जननी है, उसका विरोध कर देने से दुःखों का भी