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एकविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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पदार्थ के स्वरूप को जानने लग गये। फिर उन्होंने क्षमादि लक्षणयुक्त प्रधान धर्म का संचय कर लिया। तदनन्तर उनको सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। फिर वे सूर्य की भाँति विश्व के समस्त पदार्थों का प्रकाश करने लग गये अर्थात् जैसे आकाश में सूर्य प्रकाश करता है, तद्वत् केवलज्ञान के द्वारा पदार्थों के स्वरूप को जानकर संसार के भव्य जीवों को वास्तविक धर्म का उपदेश करने लगे। तात्पर्य यह है कि उनके ज्ञान में विश्व के सारे पदार्थ करामलकवत् प्रतिभासमान होने लग गये। अतः वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बनकर संसार का उपकार करने लगे। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत गाथा से यह भी स्पष्ट प्रतीत होता है कि ज्ञानपूर्वक आचरण में लाई गई धार्मिक क्रियाओं का अन्तिम फल केवलज्ञान की उत्पत्ति है, जिसके द्वारा यह जीवआत्मा से परमात्मा बनकर विश्व-भर का कल्याण करने की शक्ति रखता है। इस काव्य में 'अनुत्तरे' यहाँ पर एकार अलाक्षणिक है।
अब प्रस्तुत अध्ययन की समाप्ति करते हुए उक्त विषय की फलश्रुति के सम्बन्ध में कहते हैं
दुविहं खवेऊण य पुण्णपावं,
निरंजणे सव्वओ विप्पमुक्के। तरित्ता समुदं व महाभवोहं, समुद्दपाले अपुणागमं गए ॥२४॥
त्ति बेमि। इति समुद्दपालीयं एगवीसइमं अज्झयणं समत्तं ॥२१॥
द्विविधं क्षपयित्वा च पुण्यपापं, .. निरंजनः सर्वतो विषमुक्तः। तीर्खा समुद्रमिव महाभवौघ,
समुद्रपालोऽपुनरागमां गतः ॥२४॥