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चतुर्दशाध्ययनम् ]
हिन्दी भाषाटीकासहितम्
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रूप से अन्य पदार्थों के साथ उसका सम्बन्ध प्रतीत होता है, उसी प्रकार मिध्यास्वाद के कारण इसका कर्माणुओं के साथ सम्बन्ध हो जाता है । यदि कहें कि अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्मों का सम्बन्ध कैसे हुआ तो इसका उत्तर यह है कि जैसे आकाश अरूपी - अमूर्त होने पर भी वह रूपी - मूर्त पदार्थों का भाजनसम्बन्धी है, उसी प्रकार यह आत्मा भी कर्मों का भाजन हो सकता है । तथा जो आध्यात्मिक बंध है अर्थात् आत्मा के साथ कर्मों का बन्ध है इसी को विद्वानों ने संसार के परिभ्रमण का हेतु माना है । सारांश कि आत्मा अमूर्त है और नित्य है । मिथ्यात्वादि उसके बन्ध के कारण हैं और यह बन्ध ही संसार अर्थात् जन्म मरण परंपरा का हेतु है । इससे सिद्ध हुआ कि आत्मा एक स्वतंत्र पदार्थ है और वह अनादि परम्परा से मिध्यात्वादि के कारण कर्म का बन्ध करता है और उस बन्ध के विच्छेदार्थ इसे धर्म के आचरण की आवश्यकता है । तदर्थ हमारा दीक्षा के लिये उद्यत होना किसी प्रकार से भी अनुचित नहीं कहा जा सकता किन्तु विपरीत इसके वह युक्तियुक्त और उचित ही है । यह इस गाथा का भावार्थ है ।
अस्तु, जब कि आत्मा का अस्तित्व प्रमाणित है और बन्ध के कारण भी सुनिश्चित हैं तथा इस बन्ध में संसार की कारणता भी विद्यमान है तब फिर क्या करना चाहिये, अब इसी बात को वे कुमार अपने पिता से कहते हैं । यथा—
जहा वयं धम्ममजाणमाणा,
पावं पुरा कम्ममकासि मोहा ।
ओरुब्भमाणा परिरक्खियन्ता,
तं नेव भुज्जो वि समायरामो ॥२०॥ धर्ममजानानौ,
यथाssai
पापं पुरा कर्माका मोहात् । अवरुध्यमानौ परिरक्ष्यमाणौ,
तन्नैव भूयोऽपि समाचरावः ॥२०॥