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________________ १२०] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [विंशतितमाध्ययनम् vunnAAAAAANVAAAAAAAAAAAAAAAAMA ___ पदार्थान्वयः-तंसि-तुम नाहो-नाथ हो अणाहाण-अनाथों के संजयाहे संयत ! सव्वभूयाण-सर्व जीवों के महाभाग !-हे महाभाग ! ते-तुझे खामेमिक्षमापना करता हूँ इच्छामि-चाहता हूँ आपसे अणुसासिउं-आत्मा को शिक्षित करना । मूलार्थ हे भगवन् ! आप ही अनाथों के नाथ हैं । हे संयत ! आप सर्वजीवों के नाथ हैं । हे महाभाग ! मैं आप से घमा की याचना करता हूँ और अपने आत्मा को आपके द्वारा शिक्षित बनाने की इच्छा करता हूँ। टीका-महाराजा श्रेणिक कहते हैं कि हे महाराज ! आप अनाथों के नाथ हैं, अनाथों को सनाथ करने वाले हैं, अतएव सर्व जीवों के नाथ हैं। हे महाभाग ! मुझसे यदि आपका कोई अपराध हो गया हो तो आप उसे क्षमा करें । हे संयत ! मैं अपने आत्मा को आपके द्वारा शासित-शिक्षित किये जाने की इच्छा रखता हूँ, अर्थात् आपके शासन में रहकर आत्मशुद्धि की अभिलाषा रखता हूँ । प्रस्तुत गाथा में अनाथी मुनि की स्तुति, अपराध के क्षमा करने की याचना और उनकी शिक्षाओं को धारण करने की अभिलाषा-इन तीन बातों का दिग्दर्शन कराया गया है। इससे राजा की मोक्षविषयिणी इच्छा का उद्भावन किया गया है। ____ अब क्षमापना के विषय में कहते हैंपुच्छिऊण मए तुम्भं, भाणविग्यो य जो कओ। निमन्तिया य भोगेहिं, तं सव्वं मरिसेहि मे ॥५७॥ पृष्ट्वा मया युष्माकं, ध्यानविघातस्तु यः कृतः । निमन्त्रिताश्च भोगैः, तत् सर्वं मर्षयन्तु मे ॥५७॥ पदार्थान्वयः-मए-मैंने पुच्छिऊण-पूछकर तुम्भ-आपके झाण-ध्यान में विग्यो-विघ्न जो-जो कओ-किया है य-और भोगेहि-भोगों के द्वारा निमन्तियानिमंत्रित किया है त-वह सव्वं-सब मे-मेरा अपराध मरिसेहि-आप क्षमा करें । मूलार्थ-मैंने पूछकर आपके ध्यान में विघ्न उपस्थित किया और भोगों के लिए आपको निमंत्रित किया, यह सब मेरा अपराध आप वमा करें। आप चमा करने योग्य हैं।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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