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विंशतितमाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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टीका-इस गाथा के द्वारा महाराज श्रेणिक ने उक्त मुनि से अपने अपराध की क्षमा माँगी है । अपने अपराध का वर्णन करते हुए राजा कहते हैं कि हे मुने ! आप पवित्र ध्यान में निमग्न थे। मैंने प्रश्न पूछकर आपका उस ध्यान से व्युत्थान किया तथा वीतराग के निवृत्तिप्रधान मार्ग में चलते हुए आपको भोगों के लिए आमंत्रित किया, यह मैंने आपका बड़ा भारी अपराध किया है । कारण कि एक तो आपको आत्मध्यान से छुड़ाया और दूसरे परम त्यागी आपको विषय-भोगों के लिए प्रेरित किया । ये दोनों ही बातें आपके जीवन के प्रतिकूल होने से आपकी अवज्ञा की सूचक हैं। इसलिए मैं अपराधी हूँ। अत: आपसे स्वकृत अपराध की क्षमा माँगता हूँ। आप परम दयालु और सारे विश्व के नाथ हैं, इसलिए मुझे क्षमा करें । इस कथन से राजा की योग्यता का भली भाँति परिचय मिलता है। जो पुरुष योग्य होते हैं, वे अपने अपराध की क्षमा माँगने में किंचिन्मात्र भी संकोच नहीं करते । जो हठी और दुराग्रही होते हैं, वे अपराध होने पर भी उसमें सदा लापरवाह रहते हैं। जिस व्यक्ति ने जिस वस्तु का त्याग किया हो, उसको उसी त्याज्य वस्तु के लिए आमंत्रित करना उसका अपराध करना है। . अब प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार करते हुए कहते हैं
एवं थुणित्ताण स रायसीहो, - अणगारसीहं परमाइ भत्तिए। सओरोहोसपरियणो सबन्धवो,
धम्माणुरत्तो विमलेण चेयसा ॥५॥ एवं स्तुत्वा स राजसिंहः, ____ अनगारसिंहं परमया भक्त्या । सावरोधः सपरिजनः सबान्धवः,
धर्मानुरक्तो विमलेन चेतसा ॥५८॥ . पदार्थान्वयः-एवं-इस प्रकार थुणित्ताण-स्तुति करके स-वह-श्रेणिक