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________________ विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दी भाषाटीकासहितम् । त्वया सुलब्धं खलु मानुष्यं जन्म, लाभाः सुलब्धाश्च त्वया महर्षे ! यूयं सनाथाश्च सबान्धवाश्च, [ १६ यद्भवन्तः स्थिता मार्गे जिनोत्तमानाम् ॥५५॥ पदार्थान्वयः—तुज्भं-आपको सुलर्द्ध-सुन्दर प्राप्त हुआ है खु-निश्चय ही मणुस्सजम्मं-मनुष्यजन्म लाभा - रूपादि का लाभ भी आपको सुलद्धा - बहुत सुन्दर प्राप्त हुआ है महेसी - हे महर्षे ! तुमे-आपको अतः तुन्भे-आप सखाहा - सनाथ हैं य-और सबन्धवा- सबान्धव हैं य- पुनः जं-जिससे भे- आप जिणुत्तमाणं - जिनेन्द्र भगवान् के मग्गे -मार्ग में ठिया - स्थित हैं । मूलार्थ - हे महर्षे ! आपका ही मनुष्यजन्म सफल है, आपने ही वास्तविक लाभ को प्राप्त किया है, आप ही सनाथ और सबान्धव हैं, क्योंकि आप सर्वोत्तम जिनेन्द्र मार्ग में स्थित हुए हैं। टीका - महाराजा श्रेणिक अनाथी मुनि का हृदय से अभिनन्दन करते हुए कहते हैं कि भगवन् ! आपको ही मनुष्यजन्म का सुन्दर लाभ प्राप्त हुआ है । अतः आप ही सनाथ हैं, आप ही सबान्धव - बन्धुओं वाले हैं, क्योंकि आप श्रीजिनेन्द्रोक्त सर्वोत्तम मार्ग में प्रवृत्त हैं । तात्पर्य यह है कि शारीरिक सौन्दर्य के अतिरिक्त आप में वे गुण भी पर्याप्त रूप से विद्यमान हैं कि जिनसे मनुष्यजन्म को साफल्य प्राप्त होता है और यह आत्मा यथार्थ रूप में सनाथ बनता है । प्रस्तुत गाथा में गुणों के अनुरूप स्तुति की गई है, जो कि स्तुति का वास्तविक स्वरूप है । बिना गुणों के जो स्तुति की जाती है, वह स्तुति नहीं होती किन्तु एक प्रकार का असम्बद्ध गीत सा होता है । इस प्रकार स्तुति करने के अनन्तर राजा फिर कहते हैं कि " तंसि नाहो अणाहाणं सव्वभूयाण संजया ! खामेमि ते महाभाग ! इच्छामि अणुसासिउं ॥ ५६॥ त्वमसि नाथोऽनाथानां सर्वभूतानां संयत ! " • क्षमे त्वां महाभाग ! इच्छाम्यनुशासयितुम् ॥ ५६ ॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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