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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ विंशतितमाध्ययनम्
है। मुनिराज कहते हैं कि हे राजन् ! जो पुरुष औदेशिक, क्रीतकृत, नित्यपिंड और अनेषणीय आहार लेने वा खाने में किसी प्रकार का भी संकोच नहीं करता, किन्तु अग्नि की तरह सर्वभक्षी बन रहा है, वह पुरुष पापकर्म का आचरण करता हुआ यहाँ से मरकर नरकादि अशुभ गतियों को प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि इस प्रकार चारित्रव्रत का भंग करके अशुभ प्रवृत्ति करने वाले को परलोक में नरकादि - गति में जाने के अतिरिक्त और कोई स्थान नहीं । 'विवा' यहाँ इव अव्यय के स्थान मैं 'विव' आदेश करके अकार को प्राकृत के नियमानुसार दीर्घ हुआ है ।
संयम का विराधक आत्मा किस कोटि तक अनर्थ करने वाला होता है, अब इस विषय में कहते हैं
न तं अरी कंठछित्ता करेड, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा |
से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छातावेण
दयावहूणो ॥४८॥
न तदरिः कंठछेत्ता करोति,
करोत्यात्मीया दुरात्मता ।
यत्तस्य
स ज्ञास्यति मृत्युमुखं तु प्राप्तः, पश्चादनुतापेन
दयाविहीनः ॥४८॥
पदार्थान्वयः - न- नहीं तं - उसको अरी-वैरी कंठछित्ता - कंठच्छेदन करने वाला करेइ-करता है जं- जो से - उसकी अप्पणिया- अपनी दुरप्पा - दुरात्मता करे - करती है से - वह नाहिई - जानेगा मच्चुमुहं - मृत्यु के मुख में पत्ते - प्राप्त हुआ तुवितर्क में पच्छाणुतावेण-प [-पश्चात्ताप से दग्ध हुआ और दया- दया से विहूणो - विहीन ।
मूलार्थ - दुराचार में प्रवृत्त हुआ यह अपना आत्मा जिस प्रकार का अनर्थ करता है, वैसा अनर्थ तो कंठ को छेदन करने वाला शत्रु भी नहीं करता । वह दयाविहीन पुरुष तब जानेगा जब मृत्यु के मुख में प्राप्त हुआ पश्चात्ताप से दग्ध होगा।