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________________ [१०६ PRATARRRRRIOR विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । नरकगति और तिर्यंचगति की प्राप्ति है, जो कि एकमात्र दुःखों का ही निलय है । यहाँ पर 'एव' शब्द निश्चयार्थक है, मौन शब्द से चारित्र का प्रहण है और 'तमस्तमः' शब्द से प्रकृष्ट अज्ञान अथच सातवें नरक का ग्रहण अभिप्रेत है, जो कि संयम-विराधना के फल रूप में प्राप्त होता है। किस प्रकार से संयम की विराधना करके नरकादि गति को वह कुशील प्राप्त होता है, अब इस विषय में कहते हैं उद्देसियं कीयगडं नियागं, ___ नः मुच्चई किंचि अणेसणिज्जं । अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता, इओ चुओ गच्छइ कट्ट पावं ॥४७॥ औदेशिकं .क्रीतकृतं नियागं, _ न मुञ्चति किञ्चिदनेषणीयम् । अग्निरिव सर्वभक्षी भूत्वा, इतश्च्युतो (दुर्गतिं) गच्छति कृत्वा पापम् ॥४७॥ पदार्थान्वयः-उद्देसियं-औदेशिक कीयगड-क्रीतकृत नियागं-नित्य पिंड न मुच्चई-नहीं छोड़ता किंचि-किंचिन्मात्र अणेसणिज्जं-अनेषणीय आहार अग्गीअग्नि विवा-की तरह सव्वभक्खी-सर्वभक्षी भवित्ता-होकर इओ-यहाँ से चुओच्यवकर गच्छइ-जाता है-नरकगति में पावं-पापकर्म कट्ट-करके । मूलार्थ-वह असाधु पुरुष औद्देशिक क्रीतकृत, नित्यपिण्ड और अनेषणीय किंचिन्मात्र भी पदार्थ नहीं छोड़ता, अग्निवत् सर्वभक्षी होकर पाप कर्म करता हुआ नरकादि गतियों में जाता है। टीका-साधु के निमित्त से तैयार किया गया आहार औदे शिक कहाता है, मूल्य से खरीदा हुआ आहार क्रीतकृत है, नित्यप्रति दिये जाने वाले–हतकार के रूप में आहार को नित्यपिंड कहते हैं तथा अग्राह्य आहार को अनेषणीय कहा
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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