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[ विंशतितमाध्ययनम्
उत्तराध्ययनसूत्रम्
अब इसी विषय को अधिक स्फुट करते हुए फिर कहते हैं
तमंतमेणेव उ से असीले,
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सया दुही विप्परियामुवे | संधावई नरगतिरिक्खजोणिं, मोणं विराहित्तु विराहित्तु असाहुरूवे ॥४६॥
तमस्तमसैव तु स अशीलः, दुःखी विपर्यासमुपैति । नरकतिर्यग्योनीः, विराध्याऽसाधुरूपः ॥ ४६ ॥
सदा संधावति .
मौनं
पदार्थान्वयः - तमंतमेणेव - अति अज्ञान से उ-पादपूर्ति में से वह असीले - जो अशील है सया - सदा दुही - दुःखी हुआ विष्परियाम् - तत्त्वादि में विपरीतता को उवे - प्राप्त होता है संधावई - निरन्तर जाता है नरगतिरिक्खजोणिनरक और तिर्यक् योनि में मोणं - संयमवृत्ति को विराहित्तु - विराधन करके असाहुरूवे—असाधुरूप ।
मूलार्थ - असाधुरूप वह कुशील अत्यन्त अज्ञानता से संयमवृत्ति का विराधन करके सदा दुःखी और विपरीत भाव को प्राप्त होकर निरन्तर नरक और तिर्यग योनि में आवागमन करता रहता है।
टीका - इस गाथा में मौनवृत्ति — चारित्रत्रत की विराधना का फल दिखलाया गया है । मुनि ने फिर कहा कि हे राजन् ! जो पुरुष मिध्यात्व के वशीभूत हो रहा है, वह सदाचार से रहित और तत्त्वादि पदार्थों में विपरीतता को प्राप्त होकर सदा दुःखी होता है तथा दुराचार में प्रवृत्त होकर निरन्तर नरक और तिर्यग्योनियों में भ्रमण करता है। क्योंकि उसने मिध्यात्व में प्रविष्ट होकर मौनवृत्ति—संयमवृत्ति की विराधना की है; अतएव वह साधु नहीं किन्तु असाधु पुरुष है। तात्पर्य यह है कि मिध्यात्व का सेवन और संयम की विराधना का फल