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________________ [ ६०७ विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दी भाषाटीका सहितम् । यो लक्षणं स्वप्नं प्रयुञ्जानः, निमित्तकौतूहलसंप्रगाढः कुहेटकविद्या स्त्रवद्वारजीवी न गच्छति शरणं तस्मिन् काले ॥४५ ॥ पदार्थान्वयः—जे–जो लक्खणं - लक्षण और सुविण- - स्वप्न का पउंजमाणोप्रयोग करता हुआ निमित्त - भूकंपादि वां कोऊहल - कौतुक में संपगाढे - आसक्त है कुहेड विज्जा -असत्य और आश्चर्य उत्पन्न करने वाली जो विद्याएँ हैं उनसे वा आसवदारजीवी - आश्रव द्वारों से जीवन व्यतीत करने वाला न गच्छई - नहीं प्राप्त होता सरणं - शरणभूत तम्मि काले- कर्म भोगने के समय । मूलार्थ – जो पुरुष, लक्षण वा स्वम आदि का प्रयोग करता है, निमित्त - और कौतुक कर्म में आसक्त है, एवं असत्य और आश्चर्य उत्पन्न करने वाली विद्याओं तथा आश्रव द्वारों से जीवन व्यतीत करने वाला है, वह कर्म भोगने के समय किसी की शरण को प्राप्त नहीं होता । टीका- - इस गाथा में संयमरहित साधु के लक्षणों का वर्णन किया गया है । जो पुरुष साधु का वेष लेकर स्त्री-पुरुषों के शरीर में होने वाले चिह्नों से उनके शुभाशुभ फल का वर्णन करता है, अथवा स्वप्नशास्त्र के द्वारा स्त्री-पुरुषों को आये .हुए स्वप्नों का फल बतलाता है, अथवा भूकम्पादि निमित्तों के द्वारा भविष्य फल का कथन करता है, तथा अपत्य — सन्तानादि के लिए अभिमंत्रित जल से स्नानादि करवाता है, इन असत्य विद्याओं से वा आश्चर्य उत्पन्न करने वाले मंत्र, तंत्र आदि से और आश्रवद्वारों— हिंसा, झूठ आदि पाँचों पापमार्गों से जो जीवन व्यतीत करता है, उसके कर्मजन्य दुःख भोगने के समय इन उपरोक्त वस्तुओं में से कोई भी मंत्र, तंत्र आदि पदार्थ सहायक नहीं होता, किन्तु ये उक्त लौकिक विद्याएँ केवल कर्मबन्ध का ही कारण होती हैं । इस सारे सन्दर्भ का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के जीव ही सनाथ बनकर अनाथ बन गये हैं । इस कथन से यह भी प्रतीत होता है कि उस समय में भी संयम से भ्रष्ट होने वाली अनेक दुर्बल आत्माएँ विद्यमान थीं, जिनके सुधार के लिए यह प्रकरण लिखा गया ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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