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विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[१११ टीका-इस गाथा में कुमार्गगामी आत्मा को अकारण कण्ठ छेदन करने वाले शत्रु से भी अधिक अनर्थ करने वाला बतलाया गया है । महाराजा श्रेणिक से उक्त मुनिराज कहते हैं कि हे राजन् ! दुराचार में प्रवृत्त हुआ यह आत्मा जितना अनर्थ उत्पन्न करता है, उतना तो विना कारण किसी के मस्तक को छेदन कर देने वाला शत्रु भी नहीं करता। तात्पर्य यह है कि सिर काटने वाले शत्रु ने तो एकमात्र उसी जन्म के दुःख वा मृत्यु को उत्पन्न किया, परन्तु उन्मार्गगामी आत्मा तो अनेक जन्मों के दुःखों को उपार्जन कर लेता है। यदि कोई कहे कि क्या वह यह नहीं जानता कि मैं अनर्थ कर रहा हूँ ? तो इसका समाधान यह है कि वह दयाहीन होने से उस समय नहीं जानता, परन्तु जब मृत्यु के मुख में जावेगा, तब अनेक प्रकार से पश्चात्ताप करता हुआ अपने किये हुए अशुभ कर्मों के कटुफल को जानेगा । सारांश यह है कि दुराचार सब अनर्थों का मूल है । अतः मुमुक्षु पुरुषों को चाहिए कि वे अपने आत्मा को उन्मार्ग में जाने से हर समय रोके रखने का प्रयत्न करें, ताकि फिर दुःखों का मुँह देखना न पड़े। .
अब इसी सम्बन्ध में फिर कहते हैंनिरट्ठिया नग्गरुई उ तस्स,
जे उत्तम? विवियासमेइ । इमे वि से नत्थि परे वि लोए, ____ दुहओ विसे झिज्झइ तत्थलोए ॥४९॥ निरर्थिका नाग्न्यरुचिस्तु तस्य, ___य उत्तमाथ विपर्यासमेति । अयमपि तस्य नास्ति परोऽपि लोकः,
द्विधापि स क्षीयते तत्र लोके ॥४९॥ पदार्थान्वयः-निरट्ठिया-निरर्थक ही नग्गरुई-नग्नरुचि उ-वितर्क में तस्स-उसकी जे-जो उत्तमद्वे-उत्तम अर्थ को भी विवियासम्-विपरीत रूप में एइ