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________________ १०४ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [विंशतितमाध्ययनम् वालों के सामने कोई कीमत नहीं पाती या उसका बहुत ही अल्प मूल्य पड़ता है, उसी प्रकार वह द्रव्यमुनि भी विज्ञ पुरुषों के सम्मुख निस्तेज होता हुआ किसी गणना में नहीं आता। सारांश यह है कि जैसे काच की मणि मूर्ख पुरुषों के सामने तो असली मणि की तरह प्रकाशित होती है और जानकार पुरुषों के समक्ष उसकी कुछ भी कीमत नहीं पड़ती, इसी प्रकार द्रव्यलिंगी मुनि भी भोले और मूर्ख जनों में तो साधुरूप से प्रकाशित होता है परन्तु बुद्धिमान् पुरुषों के सामने उसका असली रूप बहुत जल्दी खुल जाता है। अब फिर कहते हैंकुसीललिंगं इह धारइत्ता, इसिज्झयं जीविय बृहइत्ता। असंजए संजयलप्पमाणे, विणिग्घायमागच्छइ से चिरंपि ॥४३॥ कुशीललिंगमिह धारयित्वा, ऋषिध्वजं जीवितं बृंहयित्वा । असंयतः संयतमिति लपन्, विनिघातमागच्छति स चिरमपि ॥४३॥ पदार्थान्वयः-कुसीललिंग-कुशीललिंग को इह-इस जन्म में धारइत्ताधारण करके इसिज्झयं-ऋषिध्वज से जीविय-जीवन का बृहइत्ता-पोषण करके असंजए-असंयत होकर संजय-मैं संयत हूँ इस प्रकार लप्पमाणे-बोलता हुआ विणिग्वायम्-अभिघात रूप को आगच्छइ-प्राप्त होता है से-वह चिरंपिचिरकाल पर्यन्त । ___मूलार्थ-वह द्रव्यलिंगी मुनि कुशीललिंग-कुशीलवृत्ति को धारण करके और ऋषिध्वज से जीवन को बढ़ाकर तथा असंयत होने पर भी मैं संयत हूँ, इस प्रकार बोलता हुआ इस संसार में चिरकाल पर्यन्त दुःख पाता है ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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