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विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[१०५ टीका-प्रस्तुत गाथा में संयम के त्याग और असंयम के अनुसरण का फल दिखलाते हुए उक्त मुनिराज फिर कहते हैं कि हे राजन् ! वह द्रव्यलिंगी मुनि पार्श्वस्थादि के वेष को धारण करके, अर्थात् कर्म संयम से रहित जीवों की वृत्ति को धारण करके और ऋषिध्वज से अपने जीवन का पोषण करता हुआ तथा असंयत होने पर भी अपने आपको संयत मानता हुआ अर्थात् हम इसी वृत्ति में रहकर स्वर्ग और अपवर्ग को सुखपूर्वक प्राप्त कर लेंगे, ऐसा संभाषण करता हुआ, वास्तव में चिरकालपर्यन्त इस संसार में नरकादि अशुभ गतियों के दुःखों को भोगता है। उक्त गाथा में आये हुए 'इसिज्झयं-ऋषिध्वजं' शब्द का अर्थ वृत्तिकारों ने यद्यपि 'रजोहरणादिमुनिचिह्नम्' ऐसा किया है, परन्तु रजोहरण की अपेक्षा मुख पर बाँधी हुई मुँहपत्ति अधिक स्पष्ट चिह्न है, और आदि शब्द से मुखपत्ति का ग्रहण वृत्तिकारों को भी अभीष्ट है । इसलिए यदि उक्त पाठ के स्थान में 'मुखवत्रिकादि मुनिचिह्नम्' होता
और आदि शब्द से रजोहरण का ग्रहण किया जाता तो हमारे विचार में अधिक संगत और अधिक स्पष्ट था । उक्त पद में 'सुप्' का व्यत्यय किया हुआ है और 'जीविय' पद में अनुस्वार का लोप किया गया है।
अब प्रस्तुत विषय का सहेतुक वर्णन करते हैं
विसं तु पीयं जह कालकूडं, ..... हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं ।
एसो वि धम्मो विसओववन्नो, __हणाइ वेयाल इवाविवन्नो ॥४४॥ विषं तु पीतं यथा कालकूट,
हिनस्ति शस्त्रं यथा कुगृहीतम् । एषोऽपि धर्मो विषयोपपन्नः, .
___ हन्ति वेताल इवाविपन्नः ॥४४॥ ... पदार्थान्वय:-विसं-विष तु-जीवन के लिए पीयं-पिया हुआ जह-जैसे