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________________ ६०२] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [विंशतितमाध्ययनम् vhAURJARAT पदार्थान्वयः-चिरं पि-चिरकालपर्यन्त मुण्डरुई-मुंडरुचि भवित्ता-होकर अथिर-अस्थिर व्वए-व्रत तव-तप नियमेहि-नियमों से भट्ठ-भ्रष्ट है से-वह चिरं पि-चिरकाल तक अप्पाण-आत्मा को किलेसइत्ता-क्लेशित करके पारए-पारगामी न होइ-नहीं होता संपराए-संसार से हु-निश्चय ही। : मूलार्थ जो जीव चिरकाल पर्यन्त मुंडरुचि होकर व्रतों में अस्थिर है 'और तप-नियमों से भ्रष्ट है, वह अपने आत्मा को चिरकाल तक क्लेशित करके भी इस संसार से पार नहीं हो सकता। टीका-मुनि कहते हैं कि हे राजन् ! जो पुरुष पाँच महाव्रतों और पाँचों प्रकार की समितियों का सम्यक् रीति से पालन नहीं करते अर्थात् प्रहण किये हुएं व्रतों में अस्थिर और तप-नियमों के अनुष्ठान से पराङ्मुख हैं, वे मुंडरुचि या द्रव्यमुंडित हैं। तात्पर्य यह है कि उन्होंने सिर मुंडाकर वेष तो साधु का ग्रहण कर लिया है परन्तु भाव से वह मुंडित नहीं हुए। अर्थात् तदनुकूल भाव चारित्र उनमें नहीं हैं। ऐसे द्रव्यलिंगी चिरकाल तक अपने आत्मा को क्लेश देते हुए भी इस संसार से पार नहीं हो सकते । क्योंकि इस जन्म-मरण रूप संसार-चक्र से पार होने का उपाय एकमात्र संयम का यथाविधि पालन करना है। संयम के यथाविधि पालन से ही राग-द्वेष की विकट प्रन्थि शिथिल होती है और राग-द्वेष के अभाव से आत्मा में वीतरागता उत्पन्न होती है, जो कि संसार-समुद्र को पार करने के लिए सुदृढतम नौका के समान है। अतः जो जीव केवल द्रव्य से मुंडित हैं और भाव से परिग्रही हैं, उनका इस संसार से पार होना कठिन ही नहीं किन्तु असंभव भी है । 'संपराए' यहाँ पर 'सुप्' व्यत्यय किया हुआ है। अब द्रव्यमुंडित के विशिष्ट स्वरूप के विषय में कहते हैं- . पुल्लेव मुट्ठी जह से असारे, ___ अयन्तिए कूडकहावणे वा। राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्घए होइ हु जाणएसु ॥४२॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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