________________
विशतितमाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[१०१
__ मूलार्थ हे राजन् ! जिसकी ईर्या, भाषा, एषणा, आदान, निक्षेप और उत्सर्ग समिति में किंचिन्मात्र भी आयुक्तता-यतना नहीं है, वह वीर सेवित मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकता । अर्थात् वीर भगवान् अथवा शूरवीर पुरुषों ने जिस मार्ग में गमन किया है, उस मार्ग में नहीं चल सकता ।
टीका-मुनि कहते हैं कि राजन् ! दीक्षित होने के अनन्तर जो पुरुष ईर्या, भाषा, एषणा, आदान, निक्षेप और उच्चार प्रस्रवणादि समितियों में किंचिन्मात्र भी उपयोग नहीं रखता अर्थात् उक्त पाँचों समितियों में अविवेक से काम लेता है, जैसे कि-चलने में, बोलने में और आहार आदि के करने में यतना नहीं, तथा वस्तु के उठाने और रखने में भी जिसको विवेक नहीं, एवं मलमूत्र के त्याग में भी जो विचार नहीं रखता, वह पुरुष वीर भगवान् के मार्ग का अनुयायी नहीं हो सकता, अथवा शूरवीर पुरुषों के गन्तव्य मार्ग का अनुसरण करने वाला नहीं होता । क्योंकि उक्त पाँचों महाव्रत और ईर्यादि पाँचों समितियों का यथाविधि पालन करना सत्त्वशाली धीर-वीर पुरुषों का ही काम है, कायर पुरुषों का नहीं । अतएव जो पुरुष इनका यथाविधि पालन नहीं करता, वह वीर भगवान् के मार्ग का अनुयायी नहीं हो सकता । यहाँ पर 'वीर' शब्द से श्रमण भगवान महावीर और 'शूरवीर' ये दोनों ही अर्थ ग्रहण किये गये हैं।
अब फिर इसी विषय में कहते हैंचिरं पि से मुण्डाई भवित्ता, ___ अथिरव्वए तवनियमेहिं भट्रे।
चिरं पि अप्पाण किलेसइत्ता, - न पारए होइ हु संपराए ॥४१॥
चिरमपि स मुण्डरुचिर्भूत्वा, ____ अस्थिरव्रतस्तपोनियमेभ्यो भ्रष्टः। चिरमप्यात्मानं क्लेशयित्वा, ___ न पारगो भवति खलु संपरायस्य ॥४१॥