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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[विंशतितमाध्ययनम्
होकर भी प्रमाद के वशीभूत हुआ अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों का सम्यक् प्रकार से सेवन नहीं करता और इन्द्रियनिग्रह भी जिसके नहीं तथा रसों में अति मूर्छित होता है, वह पुरुष रागद्वेषजन्य और जन्म-मरण के कारण रूप कर्मबन्धन का मूल से उच्छेद करने में समर्थ नहीं हो सकता । क्योंकि जिन कारणों से उसने संसार के बन्धनों का उच्छेद करना था, वे कारण उसमें नहीं हैं। अतः बन्धन ज्यों के त्यों बने रहते हैं। तात्पर्य यह है कि आश्रवों का निरोध, संवर तत्त्व की भावना और तप, स्वाध्याय, एवं धर्मध्यान आदि के द्वारा ही पूर्व के कर्मों का क्षय होना सम्भव हो सकता है। परन्तु जब आश्रव का ही निरोध नहीं तो बन्धन कैसे छूट सकते हैं ? यहाँ पर उक्त गाथा में जो 'मूलतः' शब्द दिया है, उसका अभिप्राय यह है कि इस प्रकार का प्रमादी जीव प्रव्रजित होने पर कदाचित् थोड़े बहुत कर्मबन्धन का उच्छेद तो भले ही कर सके, किन्तु सम्पूर्ण का उच्छेद करना उसकी शक्ति से सर्वथा बाहर है । अर्थात् वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता।
फिर कहते हैंआउत्तया जस्स न अस्थि कावि,
इरियाइ भासाई तहेसणाए। आयाणनिक्खेवदुगंछणाए ,
न वीरजायं अणुजाइ मग्गं ॥४०॥ आयुक्तता यस्य नास्ति कापि,
ईर्यायां भाषायां तथैषणायाम्। . आदाननिक्षेपजुगुप्सनासु ___ न वीरयातमनुयाति मार्गम् ॥४०॥
पदार्थान्वयः-आउत्तया-आयुक्तता—यतना जस्स-जिसकी कावि-थोड़ी भी न अत्थि-नहीं है इरियाइ-ईर्या में भासाइ-भाषा में तह-तथा एसणाए-एषणा में आयाण-आदान में निक्खेव-निक्षेप में, तथा दुगछणाए-जुगुत्सा में, वह वीरजायं-वीरयात–वीरसेवित मग्गं-मार्ग का न अणुजाइ-अनुसरण नहीं करता ।