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विंशतितमाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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सत्त्वहीन कायर पुरुष भी इस संसार में विद्यमान हैं, जो कि निर्मन्थ धर्म को प्राप्त करके उसमें शिथिल हो जाते हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो सनाथ होकर भी अनाथ हो जाते हैं । कारण कि निर्ग्रन्थ वृत्ति का धारण करना सनाथता का हेतु है । उस वृत्ति के परित्याग से अनाथता की प्राप्ति अनिवार्य है। जिन पुरुषों ने संयम मार्ग में अपनी कायरता का परिचय दिया है, उन सत्त्वहीन पुरुषों की अनाथता के विषय में मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसको तुम स्थिरचित्त होकर श्रवण करो । यह प्रस्तुत गाथा का संक्षिप्त भावार्थ है ।
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अब उसी प्रस्तावित अर्थात् अनाथता के विषय में कहते हैंपव्वइत्ताण महव्वयाई, सम्मं च नो फासयई पमाया । अनिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे, न मूलओ छिंदइ बन्धणं से ॥३९॥ प्रव्रज्य महाव्रतानि,
यः
सम्यक् च नो स्पृशति प्रमादात् । अनिगृहीतात्मा च रसेषु गृद्धः,
न मूलतः छिनत्ति बंधनं सः ॥३९॥
पदार्थान्वयः – जो-जो पव्वइत्ताण - दीक्षित होकर महव्वयाइ - महाव्रतों को पमाया - प्रमाद से सम्मं - भली प्रकार नो फासयई - सेवन नहीं करता रसेसु-रसों मैं गिद्धे - मूच्छित य - और अनिग्गहप्पा - इन्द्रियनिग्रह से रहित से - वह न - नहीं मूलओ-मूल से बन्धणं-कर्मबन्धन को छिंदह - छेदन कर सकता ।
मूलार्थ - जो प्रव्रजित होकर प्रमादवश से महाव्रतों का भली प्रकार सेवन नहीं करता तथा इन्द्रियों के अधीन और रसों में मूच्छित है, वह रागद्वेषजन्य कर्मबन्धन का मूल से उच्छेदन नहीं कर सकता ।
टीका - इस गाथा में सनाथ होकर अनाथ होने वाले व्यक्तियों के कृत्यों का दिग्दर्शन कराते हुए उक्त मुनिराज कहते हैं कि राजन् ! जो
पुरुष प्रव्रजित