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________________ ८९८] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [विंशतितमाध्ययनम् यह है कि दुष्ट मार्ग में प्रवृत्त होने से यह आत्मा नरकगति के दुःखों का अनुभव करता है और शुभ कर्मों में प्रवृत्त होता हुआ यही स्वर्ग और मोक्ष के आनन्द को भोगने वाला होता है। अतः अनाथ होना या सनाथ बनना यह सब इसके अपने हाथ में है। ___ चारित्र ग्रहण करने पर भी जो कितने एक जीव अनाथ ही बने रहते हैं, अब उनके विषय में कहते हैं इमा हु अन्ना वि अणाहया निवा! तामगचित्तो निहुओ सुणेहि मे। नियण्ठधम्म लहियाण वी जहा , सीयन्ति एगे बहुकायरा नरा ॥३८॥ इयं खल्वन्याप्यनाथता नृप ! - तामेकचित्तो निभृतः . शृणु । निम्रन्थधर्म लब्ध्वाऽपि यथा , सीदन्त्येके बहुकातरा नराः ॥३८॥ पदार्थान्वयः-निवा-हे नृप ! इमा-आगे कही जाने वाली हु-पादपूर्ति में अन्नावि-और भी अणाहया-अनाथता है तां-उसको एगचित्तो-एकचित्त होकर निहुओ-स्थिरता से मे-मुझसे सुणेहि-सुनो नियण्ठधम्मम्-निग्रंथ धर्म को लहियाण वी-प्राप्त होकर भी जहा-जैसे एगे-कोई एक सीयन्ति-ग्लानि को प्राप्त हो जाते हैं बहुकायरा-जो कि बहुत कातर नरा-पुरुष हैं। मूलार्थ हे नृप ! अनाथता के अन्य स्वरूप को भी तुम मुझसे एकाग्र और स्थिरचित्त होकर सुनो । जैसे कि कई एक कायर पुरुष निर्ग्रन्थ धर्म के मिलने पर भी उसमें शिथिल हो जाते हैं। टीका-मुनि ने राजा से कहा कि हे राजन् ! मैंने तुमको ऊपर अनाथता का जो स्वरूप बतलाया है उसके अतिरिक्त अनाथता का एक और भी स्वरूप है, जिसको मैं तुम्हारे प्रति कहता हूँ। तुम एकाग्र मन होकर सुनो । कई एक ऐसे
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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