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विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[८९७ टीका-इस गाथा में वैतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष की उपमा से आत्मा की अधमता और कामधेनु तथा नन्दन वन की उपमा से उसकी उत्तमता का वर्णन किया गया है। मुनि कहते हैं कि हे राजन् ! अनेक प्रकार के अनर्थ रूप दुःखों को उत्पन्न करने वाला यही आत्मा वैतरणी नदी है और यही आत्मा नरक का कूटशाल्मली वृक्ष है । जिस प्रकार नरक की वैतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष नानाविध दुःखों के उत्पादक हैं, उसी प्रकार उन्मार्गगामी आत्मा भी प्रतिक्षण दुःखों को उत्पन्न करता रहता है । इसी प्रकार सन्मार्ग में प्रवृत्त हुआ यह आत्मा कामदुघा घेनु
और नन्दन वन है अर्थात् इनकी भाँति मनोवाञ्छित फल देने वाला है । तात्पर्य यह है कि यह आत्मा स्वर्ग और अपवर्ग का सुख देने वाला है और यही नरक में ले जाकर भयानक से भयानक दुःखों का अनुभव कराता है। तब इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह आत्मा सनाथ भी है और अनाथ भी।
___ अब फिर कहते हैंअप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पद्विय सुपदिओ ॥३७॥ आत्मा कर्ता विकर्ता च, दुःखानां च सुखानां च । आत्मा मित्रममित्रञ्च, दुःप्रस्थितः सुप्रस्थितः ॥३७॥
पदार्थान्वयः-अप्पा-आत्मा कत्ता-कर्ता है य-और विकत्ता-विकर्ता है दुहाण-दुःखों का य-और सुहाण-सुखों का य-पुनः अप्पा-आत्मा मित्तम्-मित्र है च-और अमित्तम्-शत्रु है दुप्पट्ठिय-दुःप्रस्थित और सुपट्टिओ-सुप्रस्थित है।
____ मूलार्थ हे राजन्! यह आत्मा ही दुःखों और सुखों का कर्ता तथा विकर्ता है। एवं यह आत्मा ही शत्रु और मित्र है, सुप्रस्थित मित्र और दुःप्रस्थित शत्रु है।
टीका-मुनि ने फिर कहा कि राजन् ! शुभाशुभ कर्मजन्य जो सुख और दुःख उपलब्ध होते हैं, उनका कर्ता और विकर्ता अर्थात् उन कर्मों को बाँधने वाला
और उनका क्षय करने वाला यह आत्मा ही है तथा अत्यन्त उपकारी होने पर यह आत्मा सब का मित्र बन जाता है और अपकार करने से शत्रु हो जाता है। सारांश