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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[विंशतितमाध्ययनम्
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तथा अन्य सब जीवों का नाथ बनने का सौभाग्य मुझे इस अनगार वृत्ति से ही प्राप्त हुआ है । वास्तव में देखा जाय तो सांसारिक विषय-भोगों का परित्याग करके संयमवृत्ति को धारण करने वाला आत्मा ही नाथ हो सकता है। उसके अतिरिक्त अन्य सब जीव अनाथ हैं। क्योंकि जो आत्मा आश्रवद्वारों-पाप के मार्गों-का निरोध करके संवर मार्ग में आता है, वह विश्व भर के जीवों का नाथ बन जाता है। अर्थात् वह सभी जीवों का रक्षक होने से अपना तथा अन्य जीवों का स्वामी बनकर संसार के प्रत्येक जीव पर अपनी सनाथता प्रकट करता हुआ स्वतंत्रतापूर्वक विचरता है । इसी लिए तीर्थंकर भगवान को सर्व जीवों का हितैषी-हित चाहने वाला—होने से लोकनाथ कहा जाता है—'लोगनाहाणं-लोकनाथेभ्यः' इत्यादि । इस कथन से उक्त मुनिराज ने राजा के प्रति अनाथ और सनाथपन का जो रहस्य था अर्थात् सनाथ कौन और अनाथ कौन है वा कौन हो सकता है ? तथा अनाथ होने के कारण ही मैंने इस संयमवृत्ति को धारण किया है, इत्यादि सभी बातों का रहस्यपूर्ण वर्णन कर दिया, जिससे कि उसको यथार्थ उत्तर मिलने पर सन्तोष प्राप्त हो सके।
___ इस प्रकार अनाथता और सनाथता का वर्णन करने के अनन्तर अब आत्मा के विषय में कहते हैं । अर्थात् हर प्रकार की न्यूनाधिकता, उत्तमाधमता आदि गुण, अवगुण सब आत्मा में ही हैं, यह समझाते हैं- . ..
अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नन्दणं वणं ॥३६॥ आत्मा नदी वैतरणी, आत्मा मे कूटशाल्मली । आत्मा कामदुघा धेनुः, आत्मा मे नन्दनं वनम् ॥३६॥
पदार्थान्वयः-अप्पा-आत्मा नई-नदी वेयरणी-वैतरणी है अप्पा-आत्मा मे मेरा कूडसामली-कूटशाल्मलि-वृक्ष है । अप्पा-आत्मा कामदुहा-कामदुघा घेणू-धेनु गाय है अप्पा-आत्मा मे-मेरा नन्दणं वणं-नन्दन वन है।
स्म-मेरा यह आत्मा वैतरणी नदी और कूटशाल्मली है तथा पेस महात्मा ही कामवा धेनु और नन्दन बन है।