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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ विंशतितमाध्ययनम्
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भोजन कर लेने पर क्षुधावेदनीय कर्म का उपशम हो जाता है इसी प्रकार छद्मस्थ आत्मा को जब दर्शनावरणीय कर्म का उदय होता है, तब पर्याप्त निद्रा लेने से वह भी उपशान्त हो जाता है । इसके अतिरिक्त प्रस्तुत गाथा से यह भी ध्वनित होता है कि रोगादि 'कष्टों के आ जाने परं बुद्धिमान पुरुष को शुभ भावनाओं के चिन्तन में ही समय व्यतीत करना चाहिए, जिससे रोग के मूल कारण का विनाश सम्भव हो सके । वेदना शान्त होने के अनन्तर फिर क्या हुआ ? अब इसी विषय का उल्लेख किया जाता है—
तओ कल्ले पभायम्मि, आपुच्छित्ताण बन्धवे । खन्तो दन्तो निरारम्भो, पव्वईओऽणगारियं ॥३४॥
ततः
कल्यः प्रभाते, आपृच्छय क्षान्तो दान्तो निरारम्भः, प्रव्रजितोऽनगारिताम्
बान्धवान् ।
॥३४॥
पदार्थान्वयः – तओ - तदनन्तर कल्ले - नीरोग हो जाने पर पभायम्मिप्रात:काल में आपुच्छित्ता–पूछकर बन्धवे - बन्धुजनों को खन्तो-क्षमायुक्त दन्तोइन्द्रियों का दमन करने वाला निरारम्भो - आरम्भ से रहित पव्वईओ - प्रब्रजित हो गया तथा अणगारिय- अनगार भाव को ग्रहण किया ।
मूलार्थ - तदनन्तर नीरोग हो जाने पर प्रातःकाल में बन्धुजनों को पूछकर क्षमा, दान्त भाव और आरम्भ त्यागरूप अनगार भाव को ग्रहण करता हुआ मैं प्रब्रजित हो गया ।
टीका — मुनिराज ने राजा के प्रति फिर कहा कि हे राजन् ! इस प्रकार जब मैं नीरोग हो गया तो मैंने अपनी मानसिक प्रतिज्ञा के अनुसार प्रातः काल होते ही अपने माता-पिता आदि बन्धुजनों को पूछकर उस अनगारवृत्ति को धारण कर लिया, जो कि शम-दमप्रधान, और जिसमें सर्व प्रकार के आरम्भ समारम्भ आदि का परित्याग कर दिया जाता है। तात्पर्य यह हैं कि प्रातःकाल होते ही मैंने सब कुछ छोड़कर इस संयमवृत्ति को ग्रहण कर लिया । प्रस्तुत गाथा में विषयविवेचन के साथ २ मुख्य तीन बातों का निर्देश किया गया है— (१) की हुई मानसिक