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विंशतितमाध्ययनम् ]
हिन्दी भाषाटीकासहितम् ।
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हुए कष्ट को स्वकर्म का फल जानकर उसे शान्तिपूर्वक सहन करने का उद्योग करते हैं । यदि विचारहीन जीवों को किसी कष्ट का सामना करना पड़ता है तो वे अपने क्षुद्र विचारों से तथा आर्त — रौद्रध्यान से अपनी आत्मा को और भी संकट में डालने का प्रयत्न करते हैं। जैसे कि मर जाने, विष भक्षण करने, जल में कूदने और पर्वत पर से गिरकर प्राण देने इत्यादि का वे जीव संकल्प करने लगते हैं, यही उनकी क्षुद्रता और विवेकशून्यता है । अतः विचारशील पुरुषों को चाहिए कि वे 'दुःख समय घबरायें नहीं किन्तु प्राप्त हुए दुःख को शांतिपूर्वक सहन करते हुए आगे के लिए दु:ख न हो, इसके लिए उद्योग करें ।
मेरे अन्त:करण में जब इस प्रकार के भाव उत्पन्न हुए तो फिर क्या हुआ ? अब इसी विषय का वर्णन करते हैं
एवं च चिन्तइत्ताणं, पसुत्तो मि परीयत्तन्ती राईए, वेयणा मे
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नराहिवा ! खयं गया ॥ ३३॥
एवं च चिन्तयित्वा प्रसुप्तोऽस्मि नराधिप ! परिवर्तमानायां रात्रौ, वेदना मे क्षयं गता ॥ ३३ ॥ पदार्थान्वयः — एवं - इस प्रकार च - पुनः चिन्तइत्ता - चिन्तन करके पसुतो मि. मैं सो गया नराहिवा - हे नराधिप ! राईए - रात्रि के परियतन्तीए - व्यतीत होने पर
मे - मेरी वेणा - वेदना खयं-क्षय गया - हो गई ।
मूलार्थ - हे नराधिप । इस प्रकार चिन्तन करके मैं सो गया और रात्रि के व्यतीत होने पर मेरी वेदना शान्त हो गई ।
टीका – मुनि कहते हैं कि हे राजन् ! इस प्रकार जब मैंने अनगारवृत्ति को धारण करने का निश्चय किया तो उसके अनन्तर ही मैं सो गया और रात्रि के व्यतीत होते ही मेरी वह सब व्यथा जाती रही अर्थात् आँखों की असह्य वेदना और शरीर का दाह, यह सब शान्त हो गया । तात्पर्य यह है कि निद्रा का न आना भी रोग में एक प्रकार का उपद्रव होता है। निद्रा के आ जाने से भी आधा रोग जाता रहता है । जैसे वेदनीय कर्म के उदय होने से क्षुधा लगती है और पर्याप्त