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________________ विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दी भाषाटीकासहितम् । [ ८१ का हेतु कोई और ही वस्तु है, जिसके प्राप्त होने पर विशिष्टविभूति और अनुरागयुक्त कुटुम्ब जनों के होने अथवा न होने पर भी यह जीव सनाथ कहा व माना जा सकता है । बस, यही उक्त प्रकरण का अभिप्राय है । मुनि के इस सम्पूर्ण कथन को सुनने के अनन्तर राजा ने कहा कि हे मुने ! तो फिर आप उस दुःख से कैसे मुक्त हुए ? इस प्रश्न के उत्तर में उक्त मुनिराज ने जो कुछ कहा, अब उसका वर्णन करते हैं— " तओ हं एवमाहंसु, दुक्खमा हु पुणो पुणो । वेणा अणुभवि जे, संसारम्मि अणन्त ॥ ३१॥ सयं च जइ मुंचिज्जा, वेयणा विउला इओ । खन्तो दन्तो निरारम्भो, पव्वइए अणगारियं ॥ ३२ ॥ ततोऽहमेवमब्रुवम् वेदनाऽनुभवितुं सकृच्च यदि मुच्ये, वेदनायां विपुलाया इतः । क्षान्तो दान्तो निरारम्भः, प्रव्रजाम्यनगारिताम् " दुःक्षमा खलु पुनः पुनः । या, संसारेऽनन्तके ॥३१॥ ॥३२॥ पदार्थान्वयः—तओ-तदनन्तर अहं - मैं एवम् - इस प्रकार आहसु - कहने लगा दुक्खमा- दुस्सह है हु - निश्चय ही वेयणा-वेदना अणुभवि - अनुभव करनी पुणो पुणो- वार वार अन्त - अनन्त संसारम्मि - संसार में जे - पादपूर्ति के लिए है । सयं च - एक वार भी जइ - यदि इओ - इस अनुभूयमान विउला - विपुल वेयणा-वेदना से मुंचिजा - छूट जाऊँ, तो खन्तो- क्षमावान् दन्तो- दान्तेन्द्रिय निरारम्भो - आरम्भ से रहित पव्वइए-दीक्षित हो जाऊँ अणगारयं -अनावृत् को धारण कर लूँ । मूलार्थ — तदनन्तर मैं इस प्रकार कहने लगा कि इस अनन्त संसार में पुनः पुनः वेदना का अनुभव करना अत्यन्त दुःसह है । अतः यदि मैं इस असह्य वेदना से एक बार भी मुक्त हो जाऊँ तो क्षमावान्, दान्तेन्द्रिय और सर्वप्रकार के आरम्भ से रहित होकर प्रव्रजित होता हुआ अनगार वात को धारण कर लूँ ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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