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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ विंशतितमाध्ययनम्
खणं पि मे महाराय ! पासाओ वि न फिट्टई । न य दुक्खा विमोएइ, एसा मज्झ अणाहया ॥३०॥
नापयाति ।
ममाऽनाथता ॥ ३०॥
पदार्थान्वयःयः - महाराय ! - हे महाराज ! खणं पि- क्षणमात्र भी मे - मेरे पासाओ - पास से वि- फिर वह स्त्री न फिट्टई - दूर नहीं होती थी न- नहीं य-फिर दुक्खा - दुःख से विमोएइ - विमुक्त कर सकी एसा - यह मज्झ - मेरी अगाहया -. अनाथता है ।
क्षणमपि मे महाराज ! पार्श्वतोऽपि
न च दुःखाद्विमोचयति, एषा
मूलार्थ - हे महाराज ! क्षणमात्र भी वह स्त्री मेरे पास से पृथक नहीं होती थी परन्तु वह भी मुझको दुःख से विमुक्त न करा सकी, यही मेरी अनाथता है।
टीका — उक्त मुनिराज फिर कहते हैं कि हे राजन् ! अत्यन्त स्नेह के वशीभूत हुई मेरी वह स्त्री एक क्षण के लिए भी मुझसे अलग नहीं होती थी । तात्पर्य यह
है कि वह निरन्तर मेरी परिचर्या में लगी रहती थी, जिससे कि किसी न किसी प्रकार दुःख से मुक्त हो जाऊँ, परन्तु उसका भी यह प्रयास निष्फल गया अर्थात् मैं उस दुःख से मुक्त न हो सका । बस, यही मेरी अनाथतां है । यहाँ पर पाठकों को इतना ध्यान रहे कि उक्त मुनि ने अपने पूर्वाश्रम की विशिष्ट सम्पत्ति तथा सम्बन्धी जनों की पूर्ण सहानुभूति का राजा को इसलिए परिचय दिया कि वह अनाथ और सनाथपन के रहस्य को भली भाँति समझ सके । तात्पर्य यह है कि जिन कारणों से महाराजा श्रेणिक अपने आपको सनाथ समझता था और दूसरों का नाथ बनने का साहस करता था, वह सब कारण - सामग्री उक्त मुनि के पास भी पर्याप्तरूप से विद्यमान थी । इसलिए उक्त राज्य-वैभव या अन्य सम्बन्धी जनों के विद्यमान होने पर भी इस जीव को प्राप्त होने वाले दुःख से कोई भी मुक्त कराने में समर्थ नहीं हो सकता । बस, यही इसकी अनाथता है । सारांश यह है कि इन उक्त पदार्थों के प्राप्त हो जाने पर भी यह जीव वास्तव में सनाथ नहीं हो सकता किन्तु सनाथपन