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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[विंशतितमाध्ययनम्
पदार्थान्वयः-महाराय ! हे महाराज ! मे मेरी सगा-सगी जेटु-ज्येष्ठ और कनिढगा-कनिष्ठ भइणीओ-भगिनियाँ भी थीं न-नहीं य-पुनः दुक्खा-दुक्ख से विमोयन्ति-विमुक्त कर सकीं एसा-यह मज्भ-मेरी अणाहया-अनाथता है।
मूलार्थ हे महाराज ! मेरी छोटी और बड़ी सगी बहनें भी विद्यमान थीं, परन्तु वे भी मुझको दुःख से विमुक्त न करा सकी, यह मेरी अनाथता है।
टीका-फिर मुनि ने कहा कि हे राजन् ! भाइयों के अतिरिक्त मेरी सगी बहनें भी विद्यमान थीं। उन्होंने भी मेरे दुःख में समवेदना प्रकट करने में कोई कसर नहीं रक्खी, परन्तु वे भी मुझे दुःख से छुड़ाने में असमर्थ रहीं।
- अब अपनी स्त्री के सम्बन्ध में कहते हैंभारिया मे महाराय ! अणुरत्ता अणुव्वया । अंसुपुण्णेहि नयणेहिं , उरं मे परिसिंचई ॥२८॥ भार्या मे महाराज ! अनुरक्ताऽनुव्रता । अश्रुपूर्णाभ्यां नयनाभ्याम् , उरो मे परिसिञ्चति ॥२८॥ __. पदार्थान्वयः-महाराय-हे महाराज ! मे मेरी भारिया-भार्या, जो कि अणुरत्ता-मेरे में अनुरक्त और अणुव्वया पतिव्रता अंसुपुराणेहि-अश्रुपूर्ण नयणेहिंनेत्रों से मे मेरे उरं-वक्षःस्थल को परिसिंचई-परिसेचन करती थी।
मूलार्थ हे महाराज ! मुझमें अत्यन्त अनुराग रखने वाली, मेरी पतिव्रता भार्या भी अपने अश्रुपूर्ण नेत्रों से मेरे वक्षःस्थल को सिंचन करती थी परन्तु वह भी मुझे दुःख से विमुक्त न करा सकी।
__टीका-मुनि ने फिर कहा कि हे राजन् ! माता, पिता आदि बन्धुजनों के अतिरिक्त, मुझमें अत्यन्त अनुराग रखने वाली और सब से अधिक सहानुभूति प्रदर्शित करने वाली मेरी पतिव्रता स्त्री ने भी मुझको दुःख से विमुक्त कराने के लिए भरसक प्रयत्न किया, रात-दिन मेरी परिचर्या में लगी रही और स्नेहातिरेक से अपने आँसुओं द्वारा मेरी छाती को तर करती रही। तात्पर्य यह है कि मेरी सेवा-शुश्रूषा के साथ उनका सारा समय प्रायः रोने में ही व्यतीत होता था। परन्तु इतनी समवेदना प्रकट करने पर भी वह मुझको उस दुःख से छुड़ाने में सफल न हो सकी ।