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विंशतितमाध्ययनम् ]
हिन्दी भाषाटीकासहितम् ।
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निवृत्ति के लिए उसने भी अनेक प्रकार के उपाय किये। अधिक क्या कहूँ, वह प्रतिक्षण इसी चिन्ता में निमग्न रहती थी, परन्तु फिर भी वह मुझको दुःख से विमुक्त न कर सकी । इससे अधिक मेरी और क्या अनाथता हो सकती है। कई एक प्रतियों में ‘दुहट्टिया—दुःखार्त्ता' ऐसा पाठ भी देखने में आता है । परन्तु दोनों के अर्थ में कोई विशेषता नहीं है ।
अब भाइयों के विषय में कहते हैं
भायरो मे महाराय ! सगा जेटुकणिट्ठगा । नय दुक्खा विमोयन्ति, एसा मज्झ अणाहया ॥२६॥
भ्रातरो मे महाराज ! स्वका ज्येष्ठकनिष्ठकाः । न च दुःखाद्विमोचयन्ति एषा
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ममाऽनाथता ॥२६॥ पदार्थान्वयः – महाराय - हे महाराज ! मे मेरे सगा-सगे जेट्ट - ज्येष्ठ और कणिट्टगा - कनिष्ठ — छोटे भायरो - भाई य- पुनः दुक्खा - दुःख से न- नहीं विमोयन्ति-विमुक्त कर सके एसा - यह मज्झ - मेरी अगाहया - अनाथता है ।
मूलार्थ - हे महाराज ! मेरे बड़े और छोटे सगे भाई भी मुझे दुःख से विमुक्त न कर सके, यही मेरी अनाथता है ।
टीका - मुनि कहते हैं कि पिता और माता के अतिरिक्त मुझको अपने सहोदर भाइयों की सहायता भी पर्याप्त रूप से मिली, परन्तु वे भी मुझे दुःख से न छुड़ा सके । तात्पर्य यह है कि जो कुछ मैंने उनको कहा या वैद्यों ने आज्ञा दी, उसके अनुसार कार्य करने में उन्होंने भी कोई त्रुटि नहीं रक्खी परन्तु मैं दुःख से मुक्त नहीं हुआ । बस, यही मेरा अनाथपन है ।
अब भगिनी आदि के सम्बन्ध में कहते हैं—
भइणीओ मे महाराय ! सगा जेटुकणिट्ठगा । न य दुक्खा विमोयन्ति, एसा मज्झ अणाहया ॥२७॥
ज्येष्ठकनिष्ठकाः ।
ममाऽनाथता ॥२७॥
भगिन्यो मे महाराज ! स्वका न च दुःखाद्विमोचयन्ति, एषा