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________________ ८८६ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [विंशतितमाध्ययनम् Dowww घर में विद्यमान थे, वे सब उन वैद्यों को दिये । तात्पर्य यह है कि घर में आये हुए वैद्यों का केवल वचन मात्र से ही आदर नहीं किया, किन्तु भूरि २ द्रव्य से भी उनको सन्तुष्ट करने में कोई कसर नहीं रक्खी । अर्थात् मेरे निमित्त से उनको प्रसन्न करने का हर प्रकार से यत्न किया तथा उन्होंने जो कुछ भी माँगा, वही दिया । परन्तु इतना अधिक द्रव्य व्यय करने पर भी वे प्राणाचार्य मुझे दुःख से मुक्त न कर सके, यही मेरी अनाथता है। तात्पर्य यह है कि जैसे अनाथों का कोई संरक्षक नहीं होता तद्वत् उन वैद्यों की इच्छानुसार पुष्कल धन का व्यय करने पर भी मैं दुःखों से मुक्त न हो सका । प्रस्तुत गाथा में पिता का कर्तव्य और उसकी उदारता का परिचय कराया गया है। 'सार' शब्द का अर्थ 'प्रधान' है। तब सार पदार्थ-प्रधान पदार्थ उनको दिये गये, यह तात्पर्य निकला । अब माता के विषय में कहते हैंमाया वि मे महाराय ! पुत्तसोगदुहट्ठिया । नयदुक्खा विमोयन्ति , एसा मझ अणाहया ॥२५॥ माताऽपि मे महाराज ! पुत्रशोकदुःखार्ता । न च दुःखाद्विमोचयन्ति , एषा ममाऽनाथता ॥२५॥ पदार्थान्वयः-माया-माता वि-भी मे मेरी महाराय-हे महाराज ! पुत्तसोग-पुत्रशोक से दुहटिया-दुःख से पीडित हुई न-नहीं य-फिर दुक्खादुःख से वमोयन्ति-विमुक्त कर सकी एसा-यह मज्झ-मेरी अणाहया-अनाथता है। मूलार्य महाराज ! पुत्र के शोक से अत्यन्त पीड़ा को प्राप्त हुई मेरी माता भी मुझे दुःख से मुक्त न कर सकी, यही मेरी अनाथता है। टीका-कदाचित् मेरी वेदना के समय पर मेरी माता ने अपने कर्तव्य का पालन न किया हो, अर्थात् मुझको दुःख से मुक्त कराने के लिए उसने कोई यत्न न किया हो, ऐसा भी नहीं। किन्तु वह भी मेरे दुःख से अत्यन्त व्याकुल होकर बड़े दीनता के वचन उच्चारण करती थी। यथा-'हा ! कथमित्थं दुःखी मत्सुतो जातः' हा ! मेरा पुत्र किस कारण से इतना दुःखी हो रहा है। इसके अतिरिक्त मेरे दुःख की
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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