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विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[८८५ से की गई चिकित्सा प्रायः सफल होती है। परन्तु मुनि कहते हैं कि मुझे इस चतुष्पाद चिकित्सा से भी कोई लाभ न हुआ। इसके अतिरिक्त वह चिकित्सा भी यथाविधि और यथाहित की गई । अर्थात् शास्त्रविधि के अनुसार और मेरी प्रकृति के अनुकूल वमन, विरेचन, मर्दन, स्वेदन, अंजन, बन्धन और लेपनादि सब कुछ किया गया, परन्तु मुझे दुःख से छुटकारा न मिला । अतएव मैंने अपने आपको अनाथ माना व कहा । कारण यह है कि इतने साधनों के उपस्थित होते हुए भी यदि मैं दुःख से मुक्त नहीं हो सका, अथवा मुझे कोई दुःख से छुड़ा नहीं सका, तो मैं सनाथ कैसे ? बस, यही मेरी अनाथता है और इसी लिए मैंने अपने आपको अनाथ कहा है। प्रस्तुत गाथा में 'चक्रक' के स्थान में 'कुर्वन्ति' और 'विमोचयन्ति स्म' के स्थान पर 'विमोचयंति' इन वर्तमान काल के क्रियापदों का प्रयोग करना प्राकृत के व्यापक नियम के अनुसार है।
___यदि यह कहा जाय कि आपके पिता कृपण होंगे, वैद्यों को कुछ देते न होंगे; इसलिए वैद्यों ने आपका ठीक रीति से उपचार नहीं किया होगा, तो इसके उत्तर में भी उक्त मुनि ने जो कुछ कहा है, अब उसका उल्लेख करते हैंपिया मे सव्वसारंपि, दिजाहि मम कारणा।
न य दुक्खा विमोयन्ति, एसा मज्झ अणाहया ॥२४॥ · पिता मे सर्वसारमपि, अदान्मम कारणात् । न च दुःखाद्विमोचयति, एषा ममाऽनाथता ॥२४॥
पदार्थान्वयः-मम-मेरे कारणा-कारण से मे-मेरे पिया-पिता ने सव्वसर्व सारंपि-सारवस्तु भी दिजाहि-दीन-नहीं य-फिर दुक्खा-दुःख से विमोयन्तिविमुक्त कर सके एसा-यह मज्झ-मेरी अणाहया-अनाथता है। ___मूलार्थ-मेरे पिता ने मेरे कारण से सर्वसार पदार्थ वैयों को दिये, परन्तु फिर भी वे मुझे दुःख से विमुक्त न कर सके, यह मेरी अनाथता है।
टीका-मुनि कहते हैं कि हे राजन् ! मेरी चिकित्सा के निमित्त आये हुए वैद्यों की प्रसन्नता के लिए मेरे पूज्य पिता ने पारितोषिक रूप में जो बहुमूल्य पदार्थ