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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[विंशतितमाध्ययनम्
थे, जो मंत्रों तथा ओषधि आदि से चिकित्सा करने में अद्वितीय थे । एवं शस्त्रचिकित्सा में भी सर्वथा निपुण और जड़ी बूटी आदि के भी पूर्ण ज्ञाता थे। कतिपय प्रतियों में 'अबीया' के स्थान पर 'अधीया' पाठ देखने में आता है। उसका अर्थ है 'अधीताः' अर्थात् पढ़े हुए। तात्पर्य यह है कि जितने भी वैद्य वहाँ पर चिकित्सा के लिए उपस्थित थे, वे सब चिकित्साशास्त्र में निष्णात थे।
___ अब उनके चिकित्साक्रम का वर्णन करते हैंते मे तिगिच्छं कुव्वन्ति, चाउप्पायं जहाहियं । न य दुक्खा विमोयन्ति, एसा मज्झ अणाहया ॥२३॥ ते मे चिकित्सां कुर्वन्ति, चतुष्पादां यथाख्याताम् । न च दुःखाद् विमोचयन्ति, एषा ममाऽनाथता ॥२३॥
पदार्थान्वयः-ते-वे—वैद्याचार्य आदि मे-मेरी तिगिच्छं-चिकित्सा को कुवन्ति-करते रहे चाउप्पायं-चतुष्पाद—वैद्य, ओषधि, आतुरता और परिचारक जहा-जैसे हियं-हित होवे न-नहीं य-पुनः मे-मुझे दुक्खा-दुःख से विमोयन्तिविमुक्त कर सके एसा-यह मज्झ-मेरी अणाहया-अनाथता है। __मूलार्थ-वे वैद्याचार्यादि मेरी चतुष्पाद चिकित्सा करते रहे, परन्तु मुझे दुःख से विमुक्त न कर सके, यह मेरी अनाथता है।
टीका-पूर्वगाथा में आयुर्वेदनिपुण वैद्यों का उल्लेख किया गया है। अब इस गाथा में उनके द्वारा किये गये चिकित्साक्रम का वर्णन करते हैं । उक्त मुनिराज ने कहा कि राजन् ! पूर्वोक्त प्राणाचार्यों ने बड़ी सावधानता से मेरी चतुष्पाद चिकित्सा की । मेरी वेदना की निवृत्ति के लिए बहुत यत्न किया गया परन्तु वे सफल न हो सके, अर्थात् मुझे उक्त वेदना से मुक्त न कर सके। इसी लिए मैंने अपने को अनाथ कहा है। चतुष्पाद चिकित्सा वह कहलाती है जिसमें वैद्य, ओषधि, रोगी की श्रद्धा और उपचारक-सेवा करने वाले—ये चार कारण विद्यमान हों । तात्पर्य यह है कि (२) योग्य वैद्य हो (२) उत्तम ओषधि पास में हो (३) रोगी की चिकित्सा कराने की उत्कट इच्छा हो, और (४) रोगी की सेवा करने वाले भी विद्यमान हों। इन चार प्रकारों