________________
उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ विंशतितमाध्ययनम्
टीका - इस गाथा में चक्षुगत पीड़ा का दिग्दर्शन कराया गया है। मुनि कहते हैं कि हे राजन् ! जैसे कोई क्रोध में आया हुआ शत्रु अपने शत्रु को एकान्तस्थान में पाकर किसी तीक्ष्ण शस्त्र से उसके मर्मस्थानों को आहत करता है अर्थात् उसके शरीर में होने वाले कर्ण, नासादि विवरों में किसी तीक्ष्ण शस्त्र को सहसा चुभा देता है, उससे जिस प्रकार की भयंकर वेदना होती है, वैसी ही व्यथा मेरी आँखों में हो रही थी । तात्पर्य यह है कि शत्रु के मन में दया का सर्वथा अभाव होता है, इसलिए वह अपने शत्रु को कठोर से कठोर दंड देने का प्रयत्न करता है। अतः उसके द्वारा किये जाने वाला शस्त्र का प्रहार भी अत्यन्त असह्य होता है । वैसी ही असह्य पीड़ा मेरे नेत्रों में हो रही थी, यह मुनि के कथन का आशय है । किसी किसी प्रति में 'पविसिज्ज' के स्थान पर 'आवीलिज – आपीडयेत् — ऐसा पाठ भी देखने में आता है । उसका अर्थ यह है कि जैसे शरीर के विवरों में भली भाँति फिराया हुआ तीक्ष्ण शस्त्र अत्यन्त असह्य वेदना को उत्पन्न करता है, तद्वत् चक्षुगत पीड़ा थी । अब दाहजन्य वेदना का वर्णन करते हैं-.
तियं मे अन्तरिच्छं च उत्तमंगं च प्रीडई । इन्दासणिसमा घोरा, वेयणा परमदारुणा ॥२१॥
८८२]
त्रिकं म अन्तरेच्छं च, उत्तमांगं च पीडयति । इन्द्राशनिसमा घोरा, वेदना परमदारुणा ॥ २१॥
पदार्थान्वयः - तियं - कटिभाग मे मेरा च- और अन्तरिच्छं- हृदय की वेदना वा भूख-प्यास का न लगना च- पुनः उत्तमंग - मस्तक में पीडई - पीडा इन्दाससिमा- इन्द्र के वज्र के समान घोरा-भयंकर वेयणा - वेदना परमदारुणाअत्यन्त कठोर I
मूलार्थ — मेरे कटिभाग में, हृदय में और मस्तक में इस प्रकार की मयंकर वेदना हो रही थी, जैसे इन्द्र के वज्र के लगने से होती है ।
टीका — मुनि कहते हैं कि हे राजन् ! मेरे कटिभाग — हृदय में और मस्तक में आन्तरिक दाहज्वर से इतनी असह्य वेदना हो रही थी, जितनी कि देवेन्द्र के वज्र