________________
विंशतितमाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
मेऽक्षिवेदना ।
"
प्रथमे वयसि महाराज ! अतुला अभूद् विपुलो दाहः सर्वगात्रेषु पार्थिव ! ॥१९॥ पदार्थान्वयः – महाराय - हे महाराज ! पढमे - प्रथम व-वय में अउलाअतुल — उपमारहित मे - मेरे अच्छिवेयणा - अक्षिवेदना अहोत्था - उत्पन्न हुई, और विउलो - विपुल दाहो - दाह सव्वगत्तेसु - सर्व शरीर में पत्थिवा- हे पार्थिव !
[१
मूलार्थ हे महाराज ! प्रथम अवस्था में मेरी आँखों में अत्यन्त वेदनापीड़ा हुई और सारे शरीर में हे पार्थिव ! विपुल दाह उत्पन्न हो गया ।
टीका - मुनिराज फिर कहते हैं कि हे राजन् ! पहली अवस्था में मेरी आँखें दुखनी आ गई और उनमें अत्यन्त असह्य पीड़ा होने लगी तथा आँखों की वेदना के साथ २ शरीर के प्रत्येक अवयव में असह्य दाह उत्पन्न हो गया । तात्पर्य यह है कि अक्षिजन्य पीड़ा और शरीर में होने वाले दाह ने मुझे अत्यन्त दुःखी कर दिया । यहाँ पर 'विल' यह आर्ष वाक्य होने से 'तोदक–व्यथक' शब्दों के स्थान पर आया हुआ है, जिनका अर्थ अत्यन्त व्यथा - पीड़ा है
1
1
अब अक्षिगत वेदना का वर्णन करते हैं
I
सत्थं जहा परमतिक्खं, सरीरविवरन्तरे पविसिज अरी कुडो, एवं मे अच्छिवेयणा ॥२०॥
शस्त्रं यथा परमतीक्ष्णं, शरीरविवरान्तरे
प्रवेशयेदरिः
मेऽक्षिवेदना ॥२०॥
क्रुद्धः, एवं पदार्थान्वयः—सत्थं— शस्त्र जहा - जैसे परमतिक्खं - अत्यन्त तीक्ष्ण सरीरशरीर के विवरन्तरे - छिद्रों में कुद्धो-क्रुद्ध हुआ अरी - शत्रु पविसिज - प्रवेश करे एवंउसी प्रकार मे मेरी अच्छिवेयणा - आँखों में वेदना हो रही थी ।
मूलार्थ — जैसे क्रुद्ध हुआ शत्रु अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र को शरीर के मर्मस्थानों में चुभाता है— उससे जिस प्रकार की वेदना होती है, उसी प्रकार की असह्य वेदना मेरी आँखों में हो रही थी ।