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________________ ७] उत्तराध्ययनसूत्रम् - [ विंशतितमाध्ययनम् इस प्रकार श्रेणिक राजा के कथन को सुनकर उक्त मुनिराज ने उसका जो उत्तर दिया, अब उसका वर्णन करते हैं— न तुमं जाणे अणाहस्स, अत्थं पोत्थं च पत्थिवा ! जहा अणाहो भवई, सणाहो वा नराहिव ! ॥ १६ ॥ न त्वं जानीषेऽनाथस्य, अर्थ प्रोत्थां च पार्थिव ! यथाsनाथ भवति, सनाथो वा नराधिप ! ॥ १६ ॥ पदार्थान्वयः – पत्थिवा- हे राजन् ! तुमं - तू न जाणे- नहीं जानता अगाहस्स 1 अनाथ का अत्थं - अर्थ और पोत्थं - उसकी पूर्ण उपपत्ति को - भावार्थ को च- पुनः नराहिव - हे नराधिप ! जहा - जैसे अणाहो - अनाथ भवई होता है वा - अथवा साहो- सनाथ होता है । मूलार्थ हे राजन् ! तू अनाथ शब्द के अर्थ और भावार्थ को नहीं जानता कि अनाथ अथवा सनाथ कैसा होता है । टीका - मुनि कहते हैं कि हे राजन् ! वास्तव में तू अनाथ शब्द के अर्थ और परमार्थ को नहीं समझता। मैंने जिस आशय को लेकर अथवा जिस अर्थ को लेकर तुमको या अपने को अनाथ कहा है, वह तुम्हारे ध्यान में नहीं आया । संसार नाथ और अनाथ कौन जीव है अथवा सनाथ एवं अनाथ शब्द की प्रकृतोपयोगी स्पष्ट व्याख्या क्या है, इस बात से तुम अनभिज्ञ प्रतीत होते हो। इसी से तुम्हें अपनी अनाथता में सन्देह हुआ और तुम अपने को सनाथ मान रहे हो। इतना ही नहीं, किन्तु मेरे अनाथ कहने पर आपत्ति करते हुए तुमने मेरे को मृषावादी कहने का भी साहस किया । किसी २ प्रति में 'न तुमं जाणे अनाहस्स' ऐसा पाठ भी देखने में आता है । 1 सारांश यह कि मुनि के कहे हुए वचन के भाव को न समझकर ही राजा ने उनसे अपनी सनाथता प्रकट की थी । क्योंकि वक्रोक्ति के रूप में कहे हुए शब्द के अर्थ को तब तक मनुष्य नहीं जान सकता, जब तक कि उसके मूल उत्थान का उसको पूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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