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विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[८७६ इसके अनन्तर वे मुनि अपने उक्त कथन को स्पष्ट करने के लिए फिर कहते हैंसुणेह मे महाराय ! अव्वक्खित्तेण चेयसा।। ।। जहा अणाहो भवई , जहा मेयं पवत्तियं ॥१७॥ शृणु मे महाराज ! अव्याक्षिप्तेन चेतसा । यथाऽनाथो भवति , यथा मयैतत् प्रवर्तितम् ॥१७॥
___ पदार्थान्वयः-महाराय-हे महाराज ! मे-मुझसे सुणेह-सुनो अव्वक्खितेण-विक्षेपरहित चेयसा-चित्त से जहा-जैसे अणाहो-अनाथ भवई-होता है अ-और जहा-जैसे मे मैंने पवत्तियं-कहा है। ..
___ मूलार्थ हे महाराज ! आप विक्षेपरहित चित्त से सुनो जैसे कि अनाथ होता है और जिस अर्थ को लेकर मैंने उसका कथन किया है।
टीका-वक्ता शब्द का प्रयोग किस आशय को लेकर कर रहा है तथा उसने किस प्रसंग को मन में रखकर शब्द का प्रयोग किया है, जब तक इस बात का ज्ञान न हो जाय, तब तक प्रयोग किये हुए शब्द के भाव को यथार्थ रूप में समझना अत्यन्त कठिन है । इसी अभिप्राय से मुनि ने राजा से अनाथ शब्द के भाव को समझने के लिए सावधान होने को कहा अर्थात् जिस अर्थ को लेकर अनाथ शब्द का प्रयोग किया है, उसको समझने के लिए राजा को एकाग्रचित्त होने का आदेश किया। कारण यह कि चित्त की एकाग्रता के बिना सुना हुआ पदार्थ आत्मा में चिरस्थायी नहीं रहता।
प्रस्तुत गाथा में शाब्दबोध की यथार्थता के लिए अभिधेय और उत्थान की आवश्यकता का दिग्दर्शन कराया गया है—अभिधेय का सम्बन्ध पुरुष से है और उत्थानिका का शब्द से । पाठकों को स्मरण होगा कि राजा श्रेणिक के यह पूछने पर कि आप तरुण अवस्था में साधु क्यों हो गये, उक्त मुनि ने इसका कारण अपनी अनाथता बतलाई थी। इसके मध्य में जब अनाथ और सनाथ शब्द की चर्चा चल पड़ी, तब वह मुनि अपने कथन को प्रमाणित करने के लिए उसकी उत्थानिका और उपपत्ति का वर्णन करने लगे, जो कि इस प्रकार से है