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________________ - विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [८७७ नगर च-और अंतेउरं-अन्तःपुर मे-मेरे हैं माणुसे-मनुष्यसम्बन्धी भोगे-भोगों को मैं मुंजामि-भोगता हूँ आणा-आज्ञा च-और इस्सरियं-ऐश्वर्य मे-मेरे है। एरिसे-इस प्रकार की संपयग्गम्मि-प्रधान सम्पदा में सव्वकामसमप्पिएमेरे सम्पूर्ण काम समर्पित हैं, तो फिर कह-कैसे मैं अणाहो-अनाथ भवई-हूँ हु-जिससे भंते-हे भगवन् ! आप मा मत मुसं वए-मृषा बोलें। __ मूलार्थ हे मुने ! घोड़े, हस्ती और मनुष्य मेरे पास हैं। नगर और अन्तःपुर भी है तथा मनुष्यसम्बन्धी विषय-भोगों का भी मैं उपभोग करता हूँ। एवं आशा, शासन और ऐश्वर्य भी मेरे पास विद्यमान हैं। हे भगवन् ! इस प्रकार की प्रधान सम्पदा मेरे को प्राप्त है और सर्व प्रकार के कामभोग भी मुझे मिले हुए हैं, तो फिर मैं अनाथ किस प्रकार से हूँ ? हे पूज्य ! आप मृषा-झूठ न बोलें। टीका-इन दोनों गाथाओं में महाराजा श्रेणिक ने उक्त मुनि के समक्ष राज्यसमृद्धि से अपने आपको सनाथ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। श्रेणिक ने मुनि से कहा कि मेरे पास नाना प्रकार की ऋद्धि मौजूद है। मेरा सारे राज्य में अखंड शासन है। मनुष्योचित सर्वोत्तम विषय-भोग मुझको अनायास से मिले हुए हैं। सर्व प्रकार का ऐश्वर्य, सर्व प्रकार की सम्पत्ति, एवं सर्व प्रकार के कामभोगों की पर्याप्त रूप से मेरे घर में उपस्थिति होने पर भी आप मुझे अनाथ कहते हैं, यह कैसे ? कारण यह कि अनाथ तो वही है, जिसके पास कुछ न हो तथा जिसका कोई सहायक अथा परिचारक न हो और जिसका किसी पर भी शासन न हो। परन्तु मेरे पास तो सब कुछ विद्यमान है ! फिर मैं अनाथ कैसे ? हे भगवन् ! आप असत्य न बोलें। यहाँ पर पहली गाथा में सर्वत्र ‘संति' क्रिया का अध्याहार कर लेना । तथा दूसरी गाथा के प्रथम पाद का कहीं कहीं पर-'एरिसे संपयायंमि' ऐसा पाठ भी देखने में आता है, जिसका अर्थ है कि-सम्पत् का मुझे अत्यन्त लाभ हो रहा है । और 'सव्वकामसमप्पिए' इस वाक्य में प्राकृत के कारण से व्यत्यय किया हुआ हैप्रतिरूप तो उसका—'समर्पितसर्वकामे' होना चाहिए । एवं 'भवई' में पुरुषव्यत्यय है, जो कि 'भवामि' के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है। दूसरी गाथा के—'मा हु भंते ! मुसं वए' इस चतुर्थपाद से यह सूचित किया गया है कि हे भगवन् ! आप तो सत्यवादी हैं, कभी झूठ कहने वाले नहीं; अतः मुझे अनाथ न कहें।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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