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उत्तराध्ययन सूत्रम्
[ विंशतितमाध्ययनम्
इनकी क्षमा और निर्लोभता तथा विषयों से विरक्ति तो और भी अधिक आश्चर्यमयी है। तात्पर्य यह है कि क्रोध का कारण उपस्थित होने पर भी ये क्रोध से रहित हैं । सांसारिक पदार्थों के प्रलोभन मिलने पर भी ये उनसे पृथक् हैं । अतएव विषयभोगों मैं इनको अणुमात्र भी रति नहीं । अधिक क्या कहें, इनका अन्तरंग और बाह्य सभी कुछ विलक्षण और परम आश्चर्यमय है । यद्यपि राजा ने अभी तक उनसे किसी प्रकार का वार्तालाप नहीं किया तथापि उनकी विशिष्ट आकृति और समाहित होकर बैठने से ही उसने उक्त मुनि के अन्तरंग गुणों की उज्ज्वलता का अनुमान कर लिया । इसी से वह उक्त मुनि के बाह्य और अन्तरंग स्वरूप को समझने में सफल हुआ तथा उनकी प्रशंसा करने लगा । वास्तव में जो सत् पुरुष होते हैं, वे अपने बाह्य स्वरूप से ही अपने अन्तर्गत गुणों का भली भाँति परिचय करा देते हैं और बुद्धिमान् प्रेक्षक तो उनसे बहुत ही शीघ्र परिचित हो जाते हैं। यही कारण है कि राजा ने उनका अधिक परिचय किये विना ही उनको परख लिया ।
इसके अनन्तर राजा ने क्या किया, अब इसी का वर्णन करते हैं
तस्स पाए उ वन्दित्ता, काऊण य पयाहिणं । नाइदूरमणासन्ने पंजली पडिपुच्छई ॥७॥
तस्य पादौ तु वन्दित्वा कृत्वा च नातिदूरमनासन्नः प्राञ्जलिः
प्रदक्षिणाम् । परिपृच्छति ॥७॥
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पदार्थान्वयः -- तस्स - उसके पाए - चरणों को वंदित्ता - वन्दना करके य-और पयाहिणं–प्रदक्षिणा काऊण—करके नाइदूरम् - न अति दूर और अणासन्नेन अति समीप ही उ-फिर पंजली - हाथ जोड़कर पडिपुच्छई - पूछता है ।
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मूलार्थ - राजा उनके चरणों की वन्दना करके और उनकी प्रदक्षिणा करके उनके न तो अति दूर और न अति निकट रहकर हाथ जोड़कर उनसे पूछने लगा । टीका - इसके अनन्तर महाराजा श्रेणिक उक्त मुनि के चरणकमलों को विधिपूर्वक घन्दना तथा प्रदक्षिणा करके, उनके पास बैठ गये । परन्तु वे न तो