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विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । उनसे अति दूरी पर बैठे और न अति समीप में किन्तु जितने प्रमाण में बैठना उचित था, उतने दूर और समीप प्रदेश में बैठे और विनयपूर्वक हाथ जोड़कर उनसे पूछने लगे। साधु महात्मा के पास जाकर उनसे किस प्रकार का शिष्टाचार करना तथा उनके पास किस प्रकार से बैठना एवं उनसे किस प्रकार वार्तालाप करना चाहिए इत्यादि बातों का प्रस्तुत गाथा में भली भाँति निदर्शन किया गया है।
इस प्रकार विनीत भाव से उक्त मुनि के समीप बैठने के अनन्तर महाराज श्रेणिक ने जो कुछ उनसे पूछा, अब उसी का निरूपण करते हैंतरुणोऽसि अजो! पव्वइओ, भोगकालम्मि संजया। उवदिओ सि सामण्णे, एयम₹ सुणेमि ता ॥८॥ तरुणोऽस्यार्य ! प्रवजितः, भोगकाले संयतः । उपस्थितोऽसि श्रामण्ये, एतमर्थ शृणोमि तावत् ॥८॥
- पदार्थान्वयः-अजो-हे आर्य ! संजया-हे संयत ! तरुणोऽसि-तू तरुण है पव्वइओ-दीक्षित हो गया है भोगकालम्भि-तू भोगकाल में उवट्रिओसि-उपस्थित हुया है सामण्णे-श्रमणभाव में ता-पहले एयम्-इस अट्ठम्-अर्थ को मैं सुणेमिसुनना चाहता हूँ। ___.' मूलार्थ हे आर्य ! आप तरुण अवस्था में ही प्रव्रजित हो गये हैं। हे संयत ! आपने भोगकाल में ही संयम को ग्रहण कर लिया है। अतः मैं सर्वप्रथम इस अर्थ को सुनना चाहता हूँ।
टीका-इस गाथा में महाराज श्रेणिक के प्रश्न को व्यक्त किया गया है। मुनि की युवावस्था को देखकर राजा उनसे प्रश्न करते हैं कि आर्य ! आपने युवावस्था में संयमवृत्ति क्यों ग्रहण की ? क्योंकि यह अवस्था तो संसार के विषयभोगों में रमण करने की है। आपने इस तरुण अवस्था में सांसारिक विषय-भोगों का परित्याग करके जो श्रमण धर्म को स्वीकार किया है, इसका कारण क्या है; यह मैं आपसे जानना चाहता हूँ । महाराज श्रेणिक के कथन का तात्पर्य यह है कि संसार में जिसकी युवावस्था हो, शरीर भी सुन्दर और नीरोग हो तथा उपभोग की