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विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । श्रेणिक भगवान् श्रीमहावीर स्वामी के दर्शन को गये, तब उनको देखकर बहुत से निम्रन्थ साधुओं ने इस प्रकार के भावों को व्यक्त किया कि- 'हमने स्वर्गीय देवों को तो प्रत्यक्ष रूप में नहीं देखा परन्तु वास्तव में देखा जाय तो यही देवता है । अतः यदि हमारे इस धार्मिक क्रिया-कलाप का कुछ फल हो तो हम मरकर महाराज श्रेणिक जैसे ही रूप-लावण्य को प्राप्त करें। इससे प्रतीत होता है कि महाराजा श्रेणिक भी अद्वितीय रूपवान् थे । परन्तु उक्त मुनि का रूप-सौन्दर्य कुछ विलक्षण ही था, जिससे कि महाराजा श्रेणिक को भी विस्मय हुआ।
___ इसके अनन्तर.महाराजा श्रेणिक ने क्या कहा, अब इसका वर्णन करते हैंअहो वण्णो अहो रूवं, अहो अजस्स सोमया । अहो खन्ती अहो मुत्ती, अहो भोगे असंगया ॥६॥ अहो वर्णो अहो रूपम्, अहो आर्यस्य सौम्यता । अहो क्षान्तिरहो मुक्तिः, अतो भोगेऽसंगता ॥६॥
... पदार्थान्वयः-अहो-आश्चर्यमय वएणो-वर्ण है, अहो आश्चर्यकारी रूवंरूप है अहो-आश्चर्यमयी अजस्स-आर्य की सोमया-सौम्यता है -आश्चर्यरूप खन्ती-क्षमा है अहो आश्चर्यकारी मुत्ती-निर्लोभता है अहो-आश्चर्यमयी भोगेभोगों में असंगया-नि:स्पृहता है।
___ मूलार्थ—इस आर्य में आश्चर्यमय रूप, आश्चर्यमय वर्ण और आश्चर्यकारी सौम्यता तथा आश्चर्यमयी क्षमा और निर्लोभता है । एवं भोगों से निःस्पृहता भी इनकी आश्चर्यरूप है।
टीका-उक्त मुनि की आकृति को देखने से महाराजा श्रेणिक को उनके रूपादि के विषय में जो विस्मय उत्पन्न हुआ था, प्रस्तुत गाथा में उसी को विशेषरूप से पल्लवित किया गया है। महाराजा श्रेणिक उस मुनि के स्वरूप को देखकर कहते हैं कि अहो ! इस महात्मा का गौर-वर्ण कितना उज्ज्वल है; इनके मस्तक तथा अन्य अंग-प्रत्यंग भी अपनी सुन्दरता से विस्मय को उत्पन्न कर रहे हैं । इसके अतिरिक्त इनकी शान्तरसमयी सौम्यता तो और भी आश्चर्य में डाल रही है। एवं