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________________ ८८] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [विंशतितमाध्ययनम् wwwwwwww नहीं होती । इसलिए 'संयत' के साथ 'सुसमाहित' विशेषण लगाया गया । अर्थात् वे महात्मा समाहितचित्त मन की समाधि वाले थे। इसके अतिरिक्त उनके शरीर के लावण्य को देखने से प्रतीत होता था कि वे महात्मा किसी उत्तम और विशिष्ट कुल में उत्पन्न हुए हैं। अतएव संयमवृत्ति को धारण करके वे उद्यान में भी, क्रीडास्थल में भी, समाहित होकर-समाधि लगाकर बैठे हैं। यही उनकी कुलीनता और सच्चरित्रता का परिचायक था । एवं सुकुमार होने पर उनकी सुखशीलता भी प्रायः व्यक्त ही थी। ... अब उक्त मुनि-साधु के सम्बन्ध में कहते हैं । उस साधु को देखने के अनन्तर क्या हुआ, अब इसका निरूपण करते हैं तस्स रूवं तु पासित्ता, राइन्नो तम्मि संजए । अच्चन्तपरमो आसी, अउलो रूवविम्हओ ॥५॥ तस्य रूपं तु दृष्ट्वा, राजा तस्मिन् संयते । अत्यन्तपरम आसीत्, अतुलो रूपविस्मयः ॥५॥ पदार्थान्वयः–तस्स-उस मुनि के रूवं-रूप को पासित्ता-देखकर राइनोराजा को तंमि-उस संजए-संयत में अच्चन्त-अत्यन्त अउलो-अतुल परमो-उत्कृष्ट रूव-रूप में विम्हओ-विस्मय आसी-हुआ तु-अलंकारार्थ में है। मूलार्थ-उस मुनि के रूप को देखकर राजा उस संयत के अतुल और उत्कृष्ट रूप में अत्यन्त विस्मय को प्राप्त हुआ। टीका-जिस समय महाराजा श्रेणिक की दृष्टि समाधि में बैठे हुए उस मुनि के सुकुमार शरीर के अवयवों पर पड़ी, तब उसको बड़ा ही विस्मय हुआ। क्योंकि उसने आज तक इस प्रकार का लावण्ययुक्त शरीर किसी मुनि का नहीं देखा था। पाठकगण यहाँ पर यह सन्देह न करें कि महाराजा श्रेणिक का शरीर सुन्दरता में कम होगा, इसी से उसको उक्त मुनि के रूप-सौन्दर्य में विस्मय हुआ, किन्तु वस्तुस्थिति इससे सर्वथा विपरीत है। महाराजा श्रेणिक भी अपने रूप-लावण्य में अद्वितीय थे । श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्र के दशवें अध्ययन में लिखा है कि जब महाराजा
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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