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________________ विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [८६७ मूलार्थ-वह मंडिकुक्षि नाम का उद्यान नाना प्रकार के वृक्षों और लताओं से व्याप्त, नाना प्रकार के पक्षियों से परिसेवित और नाना प्रकार के पुष्पों से आच्छादित तथा नन्दनवन के समान था। टीका-इस गाथा में मंडिकुक्षि नाम के उद्यान की शोभा का वर्णन किया गया है। अर्थात् उस उद्यान में नाना प्रकार के वृक्ष और अनेक भाँति की लताएँ विद्यमान थीं । वह पक्षिगणों से निनादित और नाना प्रकार के सुगन्धित पुष्पों से सुरभित हो रहा था । अधिक क्या कहें, वह उद्यान अपनी अद्वितीय शोभा से नन्दनवन–देववन-की समानता को धारण कर रहा था। तात्पर्य यह है कि जैसे नन्दनवन देवों के चित्त को प्रसन्न करने वाला होता है, उसी प्रकार यह मंडिकुक्षि नाम का उद्यान वहाँ के जनसमुदाय को आनंदित करने वाला था। ग्राम के समीप नागरिकों की क्रीडा के लिए जो बाग तैयार किया जाता है, उसको उद्यान कहते हैं। महाराजा श्रेणिक ने उस उद्यान में जाकर क्या देखा, अब इसी विषय में कहते हैं तत्थ सो पासई साह, संजयं सुसमाहियं । निसन्नं रुक्खमूलम्मि, सुकुमालं सुहोइयं ॥४॥ तत्र स पश्यति साधु, संयतं सुसमाहितम् । निषण्णं वृक्षमूले, सुकुमारं सुखोचितम् ॥४॥ . पदार्थान्वयः-तत्थ-उस वन में सो-वह साहुं-साधु को पासई-देखता है संजयं-संयत और सुसमाहियं-समाधि वाला निसन-बैठा हुआ रुक्खमूलम्मि-वृक्ष के नीचे सुकुमालं-सुकुमार-कोमल शरीर वाला और सुहोइयं-सुखोचित--सुखशील। ___मूलार्थ-वहाँ पर राजा श्रेणिक ने वृक्ष के नीचे बैठे हुए एक साधु को देखा. जो कि संयमशील, समाधि वाला और सुकुमार तथा प्रसन्नचित्त था। टीका-विहारयात्रा के लिए उक्त उद्यान में गये हुए महाराजा श्रेणिक ने वृक्ष के नीचे बैठे हुए एक संयमशील साधु को देखा । संयम के वेष को तो निहवादि भी लोकवंचना के लिए धारण कर लेते हैं, परन्तु उनके अन्तरंग भावों में विशुद्धि
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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