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विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दी भाषाटीकासहितम् ।
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पदार्थान्वयः—सिद्धाणं-सिद्धों को नमो किच्चा - नमस्कार करके च - और संजयागं-संयतों को भावओ-भाव से नमस्कार करके अत्थधम्मगई - अर्थ, धर्म की गति और तच्चं–तथ्य है, उसकी अणुसिद्धि- अनुशिक्षा को मे - मुझसे सुणेह - सुनो । मूलार्थ - सिद्धों और संयतों को भाव से नमस्कार करके अर्थ, धर्म की तथ्य गति को मुझसे सुनो।
टीका — स्थविर भगवान् अपने शिष्य - समुदाय से कहते हैं कि अर्थ, धर्म की जो यथार्थ गति है, उसकी शिक्षा को तुम मुझसे सुनो । यहाँ पर सिद्ध और संयत को जो नमस्कार किया गया है, वह पंचपरमेष्ठी को नमस्कार है । कारण कि सिद्ध शब्द से अरिहन्त का और संयत शब्द से आचार्य, उपाध्याय और साधु का ग्रहण है । क्योंकि जो अरिहन्त है, उसने निश्चय ही सिद्ध गति को प्राप्त होना
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है । इसलिए भाविनैगमनय के अनुसार अरिहंत को भी सिद्ध कहा जाता है । तथा संयत शब्द से आचार्यादि का ग्रहण स्वतः ही सिद्ध है । इसलिए पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करने के अनन्तर सूत्रकार अभिधेय विषय के प्रतिपादन की प्रतिज्ञा करते
हैं । यहाँ पर प्रतिपाद्य विषय अर्थ, धर्म की गति का यथार्थ रूप से निरूपण करना
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है । यथा— अर्थ्य हितार्थिभिरभिलष्यते इत्यर्थः । वही धर्म है, जिसके द्वारा
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की प्राप्ति हो जाय; इसलिए उक्त दोनों की जो गति अर्थात् जिसके द्वारा हिताहित का पूर्ण रूप से ज्ञान हो जाता है, वह यथार्थ मार्ग है । इस तथ्यमार्ग का उपदेश करने के लिए स्थविर भगवान् अपने शिष्यवर्ग को संबोधित करते हैं । यहाँ पर सूत्र में आया हुआ 'मे' शब्द 'मम' और 'मया' दोनों के स्थान में विहित हुआ है। तथा संयतों को नमस्कार करने से यह गाथा भी स्थविरकृत मानी जाती है । यहाँ चतुर्थी के स्थान पर षष्ठी के प्रयोग दिये गये हैं ।
इस प्रकार अभिधेय और प्रयोजन का तो वर्णन किया गया, परन्तु धर्मकथानुयोग होने से अब कथा के व्याज से प्रतिज्ञा के प्रतिपाद्य विषय का वर्णन करते हैं
पभूयरयणो
राया, सेणिओ मगहाहिवो ।
विहारजत्तं निज्जाओ, मण्डिकुच्छिसि चेइए ||२||