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अह महानियण्ठिज्जं वीस इमं अज्झयणं अथ महानिर्ग्रन्थीयं विंशतितममध्ययनम्
पूर्व के अध्ययन में इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि रोगादि होने पर उसके प्रतिकार के निमित्त, साधु ओषधि आदि किसी प्रकार का उपचार न करे परन्तु इस प्रकार की वृत्ति का पालन वही पुरुष कर सकता है, जिसका अन्तःकरण अनाथपने की भावना से भावित हो । अतः इस बीसवें अध्ययन में महानिर्मन्थ का वर्णन करते हुए प्रसंगानुसार कई एक अनाथों का भी वर्णन किया गया है। इस प्रकार इन दोनों अध्ययनों का परस्पर सम्बन्ध है । अब इस बीसवें अध्ययन का आरम्भ करते हुए सूत्रकार प्रथम सिद्ध और संयति को नमस्कार करके प्रतिपाद्य विषय का वर्णन करते हैं। यथा
सिद्धाणं नमो किच्चा, संजयाणं च भावओ । अत्थधम्मगईं तच्चं, अणुसिट्टिं सुह मे ॥१॥ सिद्धान् नमस्कृत्य, संयताँश्च अर्थधर्मगतिं तथ्याम्, अनुशिष्टिं श्रुणुत मम ॥ १९॥
भावतः ।
१ सिद्धान् संयतान् नमस्कृत्येति सम्यक् ।